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________________ ६३२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [पंचदश आगमका ज्ञान प्राप्त करनेकी योग्यता प्राप्त करने के लिये उद्देश समुद्देश अनुज्ञानुरुप अनुष्ठान करने चाहिये । योग धारण करमेकी आवश्यकता शास्त्रमें बतलाई गई है । इसकी क्रियाको देखते हुए इससे योगसिद्धि और मन-वचन-कायाके योगोंपर भी अच्छा अंकुश लग सकता है । (२) आगममें बतलाये भावोंको मध्यस्थ बुद्धिसे ग्रहण कर । कदाग्रह कर खींचखाच कर आगमका अर्थ करना छोड़ दे और तेरा शुद्ध दृष्टिबिन्दु हृदयचनु सन्मुख निरन्तर रख कर शुद्ध प्ररूपणा कर। (३) तुझे नृपादिकृत सत्कारका, उत्तम पदार्थ मिलनेका तथा आरोग्यताका अहंकार नहीं करना चाहिये । इनके लिये अहंकार करनेसे कितने दुःख उत्पन्न होते हैं यह हम कषायमोचन द्वार में पढ़ चुके हैं । (४) तेरे मनमें भी विषाद पैदा न कर । खेदसे आत्मतत्त्व क्षीण होता है और संसारभावकी वृद्धि होती है । (५) इन्द्रियों के समूहको वशमें कर । ये कितना दुःख देती है यह हम चौदहवें और दशमें अधिकारमें पढ़ चुके हैं, तथा इनको वशमें करनेसे कितना आनंद प्राप्त होता है यह भी उन्ही स्थानोंपर देख चुके हैं। (६) शुद्ध हेतु के लिये भिक्षा ग्रहण करनेको पर्यटन कर । साधु मधु. करी वृत्ति रखता है अर्थात् जिसप्रकार मधुमक्षिका एक पुष्पसे दूसरे पुष्पपर बैठ कर ( उस फूल के दिखावको बिना बिगड़े ) उनमें से मधु चूसती है इसीप्रकार साधु शास्त्रोक्त गौमुत्ररेखादि आकारानुसार भिन्न भिन्न गृहोमेसे, भाररूप हुए बिना, शुद्ध माहार लेकर, जो मिले उसमें ही सन्तोष रख कर, बैठ रहते हैं। इनका आहारपानी शुद्ध हेतुके लिये ही होता है, शरीरका १ जैनपरिभाषामें ये अनुक्रमसेऋद्धि, रस और शातागारव कहलाते हैं। २ चौदहवें अधिकारके १२ वें श्लोकसे १८ वे श्लोक तक देखिये; तथा दशवें अधिकारके १४ वे श्लोकको देखिये ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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