SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 721
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ चतुर्दश कायसंवर-कछुओंका दृष्टान्त. कृपया संवृणु स्वाङ्गं, कूर्मज्ञाननिदर्शनात् । संवृतासंवृताङ्गा यत्, सुखदुःखान्यवाप्नुयुः ॥१०॥ " ( जीवपर ) दया लाकर तेरे शरीरपर संवर कर, कछुएके दृष्टान्तानुसार शरीरका संवर करनेवाला और न करनेवाला अनुक्रमसे सुख दुःखको भोगता है ।" अनुष्टुप्. विवेचन-कायसंवर-मन और वचनकी प्रवृत्ति जिस. प्रकार हानिकारक है उसीप्रकार कायाकी प्रवृत्ति भी यदि सावद्य हो तो अनन्त संसारका परिभ्रमण कराती है । काययोगकी प्रवृत्ति करना हो तो भी शुभ हेतुमे करना । निष्फल और हानिकारक प्रवृत्तिके संवर करनेकी बहुत आवश्यकता है । हठयोग आदिसे जो शरीरपर विजय प्राप्त होता है वह तो एक मात्र आरोग्यादिक ऐहिक लाभ के लिये ही होता है । जैनशास्त्रकार इसको बहुत महत्त्वदायक नहीं बतलाते हैं। एक स्थानपर दो कछुऐ जा रहे थे । इतनेमें वहां पर कोई हिंसक जानवर आया उसको देखते ही दोनों कछुओंने अपने पैर और सिर अन्दर ले लिये । फिर वह जानवर दूर खड़ा रह कर उनके पैरों और सिरोंको बाहर निकालनेकी राह देखने लगा । थोड़े समय पश्चात् एक कछुएने घबढ़ा कर अपने पैर तथा सिरको बाहर निकाला कि शिकारी जानवरने उसे पकड़ कर मार डाला । दूसरे कछुएने बहुत समय होने पर भी पैर तथा सिरको बहार नहीं निकाला अतएव अन्तमें थक कर शिकारी जानवर चला गया। इन दोनों कछुओं से जिसने अपने अंगोपांग छिपाकर रक्खे उसने सुख पाया और दूसरेने दुःख पाया इसलिये कायाके संवरकी भी अत्यन्त आवश्यकता है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy