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________________ अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधः [५९१ कता है। मनका बंधारण भी जानने योग्य है, जिसके लिये निस्थम्न दो श्लोकों पर मनन करें । मनकी अप्रवृत्ति-स्थिरता. मनोऽप्रवृत्तिमात्रेण, ध्यानं नैकेन्द्रियादिषु । धर्म्यशुक्लमनः स्थैर्य-भाजस्तु ध्यायिनः स्तुमः॥॥ "मनकी प्रवृत्ति न करनेमात्रसे ही ध्यान नहीं होता है, जैसे कि एकेन्द्रिय आदिमें ( उनके मन न होनेसे मनकी प्रवृत्ति नहीं है) परन्तु ध्यान करनेवाले प्राणी धर्मध्यान और शुक्लध्यानके कारण मनकी स्थिरताके भाजन होते हैं उनकी हम स्तुति करते हैं।" अनुष्टुप्. विवेचन-- श्रीअध्यात्मोपनिषद्( योगशास्त्र )के पांचवें प्रकाशमें अनुभवी योगी श्रीमान् हेमचन्द्रसूरि कहते हैं कि पवनरोध आदि कारणोंसे प्राणायामका स्वरूप अन्य दर्शनकारोंने बताया है वह बहुत उपयोगी नहीं है, वह तो कालज्ञान और शरीर आरोग्य निमित्त जानने योग्य है । ऐसा कह कर इसके पश्चात् उसका स्वरूप हेमचन्द्रसूरि महाराज आगे बताते हैं । वे कहते हैं कि यह बहुत लाभ नहीं पहुंचाता है इसका यह कारण है कि इसमें मनकी प्रवृत्ति भी नहीं होती है। ऐसी प्रवृत्ति न करना यह तो मनको नाश करनेके समान है। एकेन्द्रियादिक तथा विकलेन्द्रियोंके मन नहीं होता है, परन्तु इससे उनको कोई लाभ नहीं होता है, परन्तु मनको बराबर उपयोगमें लानेके लिये इसमें स्थिरता प्राप्त करनेकी आवश्यकता है। मनकी प्रवृत्तिके प्रवाहको अरकानेमें कुछ लाभ नहीं है। परन्तु उसको सद्ध्यानमें लगाना, उसीमें रमण कराना, और उसीके सम्बन्धकी प्रेरणा करना और प्रेरणाद्वारा स्थिरता प्राप्त कराना यह भावरणीय है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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