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________________ ५८४ ]. अध्यात्मकल्पद्रुम . [ चतुर्दश ४ असत्यामृषामनोयोग-इसमें सामान्य विचार। झूठे तथा सच्चेके भेद रहित । चालु प्रवाह । (जैसे घडा झरता है, पर्वत जलता है, नदी बहती है ) वचनयोगके चार भेद हैं : सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, मिश्रवचनयोग और असत्यामृषावचनयोग । इनका अर्थ उपरोक्तानुसार है। १ तेजस कार्मणकाय-जब जीव एक गतिसे दूसरी गतिमें जाता है तब उसके अनादिकाल से साथ रहनेवाले भवमूल नामसे प्रख्यात दोनों ( तैजस और कार्मण) शरीर साथ होते हैं, जिसमेंसे तेजससे अगले भवमें आहार ले उनको पचा सकता है और कार्मणसे नई नई अवस्था पानेके साथ साथ नये पुद्गल ग्रहण कर सकता है। २ औदारिकमिश्र- अगले भवसे जीव अपने साथ तेजस कार्मण लाता है वे और औदारिक शरीरका प्रारम्भ किया है परन्तु निष्पत्ति नहीं हुई हो तो वह औदारिकमिश्र कहजाता है । इसीप्रकार वैकिय और आहारकके लिये भी समझना। ३ औदारिक-जिस शरीरके पुद्गल स्थूल हैं उसीप्रकार मायः अस्थि, मांस, रुधिर और चरबीमय भी होते हैं। ४ वैक्रियमिश्र-दृश्य होकर अदृश्य होना, भूचर हो कर खेघर होना, बड़े होकर छोटे होना, ऐसी अनेक प्रकारकी क्रियाये करनेवाले सात धातुरहित शरीर वैक्रिय कहलाता है। उसका आरम्भ होनेपर भी जहांतक समाप्ति न हुई हो वहांतक वैक्रियमिश्र कहलाता है। ५ वैक्रिय-ऊपर बताया शरीर पूर्ण होनेपर वैक्रिय कहलाता है। ६ आहारकमिश्न- चौदह पूर्वको जाननेवाले महापुरुष
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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