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________________ अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधः [५४१ विवेचन-मिथ्यात्वका त्याग किये बिना समाकित के विरति कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकती है। इस मिथ्यात्क्के स्वरूपको पहचाननेकी बहुत आवश्यकता है। धर्मसंग्रहमें इनको संक्षेप में ही सम्पूर्ण स्वरूप बतलाया गया है जिसका भावार्थ यहां दिया जाता है। मिथ्यात्व दो प्रकारके हैं लौकिक और लोकोत्तर । इनके भी प्रत्येकके दो दो भाग हैं । देवगत और गुरुगत (१) लौकिक देवगत मिथ्यात्व-हरि, हर, ब्रह्मा आदि परधर्मवालोंको अपने देवके रूपमें अंगीकार कर स्त्री, शस्त्र आदिवाले देवको देव मानना और उनकी पूजा--सेवा करनी। (२) लौकिक गुहँगत-- ब्राह्मण, संन्यासी आदि मिथ्योपदेशी प्रारम्भ परिग्रहवालेको गुरु मानना, नमस्कार करना, उनकी कथा सुनना और अन्तःकरणस उनका बहुत भादर करना । (३) लोकोत्तर देवगत-केशरीयाजीमल्लिनाथजी आदिको मानता करना, इस लोकके लाभके लिये पूजा करना (४) लोकोत्तर गुरुगत-तेरहवें अधिकारमें जैनामास रूपसे माने हुए गोरजी, यति, श्रीपूज्य, पसिथ्था, कुशीलीया आदि कुगुरुकी गुरुपनसे सेवा करना, इसीप्रकार केवल इस लोकके फलकी लालसासे शुद्ध साधुओंकी सेवा करना । मिथ्यात्वके अन्य पांच भेद हैं :-१ आभिग्राहक, २ अनाभिग्रहिक, ३ भाभिनिवेशिक, ४ सांशयिक, ५ अनामोगिक । इसका स्वरूप निम्नस्थ है: आभिग्राहक-कल्पित शास्त्रपर ममत्व रखना, परपक्षापर कदाग्रह करना । हरिभद्रसूरि जैसे कहते हैं कि "मुझे वीरकी ओर पक्षपात नहीं, कपिल पर द्वेष नहीं। युक्तिमान् वचन मा- १. अन्यत्र तीन तीन प्रकार भी कहे हैं, उनमें लौकिक और लोकोत्तर पनत मिथ्यात्व ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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