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________________ अधिकार यतिशिक्षा न हेममय्यप्युदरे हि शस्त्री, क्षिप्ताक्षणोति पणतोऽप्यसून् किम् ? ॥४९॥ . “ महत्वताके लिये अथवा ममत्वपनसे संघलोकोमें भी सावद्यकी अभिलाषा रखता है परन्तु क्या सोनेकी छुरीको भी पेटमें मारी जाय तो वह एक चणभरमें प्राणका नाश नहीं कर सकती है ?" उपजाति. विवेचन-इस स्थानमें प्रतिष्ठाके लेख सोरे जायेगें, उनमें मेरा नाम रहेगा, संसारमें प्रसिद्धि होगी-ऐसी कोई, यशकीर्ति मिलनेकी बुद्धिसे, किसी मेरेपनके मोहसे और विशेषच्या अज्ञानसे सावध काँका आदेश उपदेश हो जाता है। किसी भी कार्यमें यदि थोड़ीसी भी पौद्गलिक आशा रखकर अभिः मान या कपट किया तो वह अशुद्ध कर्म ही होता है; फिर चाहे व प्रशस्त हो या अप्रशस्त; परन्तु उन कृत्योंसे पापबंध और उनके भयंकर परिणाम अवश्य होते हैं । छरी हो फिर वे सोनेकी हो या रत्नजड़ित हो, परन्तु यदि उसे उदर में भोंकी हो तो वह अवश्य अन्तदियोंको बाहर निकाले बिना नहीं रहती और प्राणान्त कर देती है। इसीप्रकार वस्तुस्वभावके झूठे ख्यालसे कितने ही धर्मके बहानेसे अप्रशस्त आचरण कर अपने आत्माको कष्ट देनेवाले जीव उस निमित्तसे अनन्त संसारकी वृद्धि करने हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि ममता या महत्वताके लिये जो, प्रशस्त या प्रशस्त आचरण किया जाता है वह हानिकारक होता है । उनके अतिरिक्त जो कार्य प्रशस्त हेतुसे और गोमें उनका यहां निषेध नहीं है । सोचेकी छुरीको पेटमें मारी हो तो भातड़ियें निकाल डालती है, परन्तु यदि निमें रक्खी जाय तो वह शोभा देती है और ऐसा करती है। यह दान
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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