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________________ अधिकार यतिशिक्षा दुर्गतिको न रोक सकेगा।" उपजाति. विवेचन तेरे संसारीपनका एक घर था; उसकी चिन्ताको छोड़कर अब श्रावकोंके अनेकों घरों की जो तु चिन्ता करता है इसका क्या कारण है ? यह · लेने गई पूत और खो बैठी कसम' वाली बात हुई। तेरा क्या काम है ? तुझे क्या लाभ है ? इस पेट भरनेको यदि तू मुश्केल' समझकर तुने मुनिका वेश धारण किया हो तो तुझे इतना लाभ तो अवश्य होगा कि तुझे इस वेशसे इस भवमें खानेको तो अवश्य मिल जायगा; परन्तु परभव में महादुर्गतिमें जाना होगा । अपितु पेट भरनेमें कोई विशेषता नहीं है । तेरे समान प्रबल पुरुषार्थी तो एक दिनमें ही सम्पूर्ण वर्षकी भाजीविका उपार्जन कर सकते हैं । अतएव व्यर्थ बातके लिये सब कुछ न स्वाहा कर । व्यर्थ गृहस्थचिन्ता करके तू सब खोता जाता है । तेरी प्रतिज्ञा-तेरा व्यवहार. कुर्वे न सावधमिति प्रतिज्ञां, वदन्नकुर्वन्नपि देहमात्रात् । शय्यादिकृत्येषु नुदन् गृहस्थान् , हृदा गिरा वासि कथं मुमुक्षुः ? ॥४८॥ "मैं सावद्य न करूंगा' इस प्रतिज्ञाका तू सदैव उच्चारण करता है, फिर भी शरीरमात्रसे भी सावध नहीं करता है और शय्या आदि कार्यों में तो मन और वचनसे गृहस्थोंको प्रेरणा किया करता है--फिर तू मुमुक्षु कैसे कहला सकता है ?" उपजाति. विवेचन-'सव्वं सावजं जोगं पञ्चक्खामि जावजीवाए १ वापि इति वा पाठः ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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