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________________ ५५२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश उनको उदयकर भोगकर भात्मप्रदेशसे छिन्नभिन्न कर देने निमित्त कष्टादि सहन करना — उदीरणा' कहलाती है ) अद्भूत चारित्रवाले महात्मा लोग श्रात्मलाभकी प्राप्ति निमित्त कष्ट झेलना चाहते हैं । परमात्मासे प्रार्थना करते हैं कि ' हमको ऐसे कष्ट दो।' ' विपदः सन्तु नः शश्वत् ' हमको निरन्तर विपत्ति हो-इसप्रकार स्तुति करके भी शुद्ध दृष्टिसे आत्मकल्याण निमित्त विपत्तिको भोगनेवाले, धीर, वीर, पुरुषार्थी मध्यानकान में नदी की बालुमें आतापना लेते हैं, पोसमासकी कड़ाकेकी शर्दीमें कपड़े रहित नदीके तीर जैसे अति शीतल स्थलोंपर काउस्सग्ग ध्यान लगाते हैं और अन्य अनेकों कष्ट अपने आप इच्छापूर्वक सहन करते हैं। मोक्षप्राप्तिकी इच्छा हो उसे इसप्रकार करनेकी विशेष आवश्यकता है; और हे साधु ! तेरी इच्छा तो इसे ही प्राप्त करनेकी है, फिर भी जरासे कष्टके पड़ने पर तू हाय हाय मचाने लगता है अथवा निःसासा डालता है जो तेरे लिये नितान्तअनुचित है। उच्च स्थिति प्राप्त करने निमित्त कितने ही स्वार्थीका भी भोग देना पडता है, परन्तु इसमें तो ऐसा कुछ नहीं है । भागन्तुक कष्टों को सहन करने में भी तू क्यों पिछे हठता है। इसके स्थानमें ऊँची स्थिति प्राप्त करना तो तेरा स्वार्थ ही है। xx४०-४४ इन पांच श्लोकोंमें साधुगुणकी मुख्यता बतलाई गई है। इसमें चरणसित्तरी, करणसित्तरी, भावनाओंकी प्रधानता और मुख्य वृत्तिसे निर्बल शरीरवाले असमर्थके लिये भी तीन गुप्तिका प्रबल साधन बताया गया है । ये अभ्याससे साध्य है, इनमें बाह्य वस्तुकी सामग्री पूर्णपनसे न मिली हो तो भी चल सकता है । अपितु संसारमें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हैं कि जो अभ्याससे सिद्ध न हो सके। धर्मसंप्रहमें कहा गया है कि-.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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