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________________ ५४२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ त्रयोदश कायाके योगोंसे ही कर्मबंध होते हैं, इन कामोंका शुभाशुभपन समझना और इनके प्रवाहको विचारना आश्रव भावना कहलाती है । - इसीप्रकार समिति, गुप्ति, यतिधर्म, चारित्र, परीषहसहन आदिसे कर्मबन्धमें रुकावट आती है, कर्मका प्रवेशद्वार बन्द हो जाता है । इसके विषयमें विचार करना संवरभावना कहलाती है। ९-इसके उपरान्त आत्मप्रदेशको लगे हुए पुराने कर्मों को बाह्य अभ्यंतर तप करके नष्ट कर देना, उनका विपाकोदय न होने देना-इस प्रबल पुरुषार्थको निर्जरा कही जाती है। इसकी विचारणाको निर्जरा भावना कही जाती है । .. १०-विश्वमण्डलकी रचना, नरकके पाथड़े तथा आन्तरोंका स्वरूप, मृत्युलोकका प्रदेश, बारह देवलोक, अवेयक, अनुत्तर विमान और मोक्षका स्थान, उसमें रहनेवाले जीव और उनके सबके साथ अपना सम्बन्ध और उन सर्व स्थानोंमें हुए अनन्त वार जन्म-मरणको विचारना। ११-धर्म जीवको दुर्गतिमें पड़ने से बचाता है, ऐसा करते समय मनमें अपूर्व आनन्द होता है और किसीको हानि नहीं होती है । यह धर्म, दान, शील, तप और भाव इन चार रूपोंमें अथवा साधुके दश यतिधर्मरूपमें, श्रावकके बारह ब्रत तथा इक्कीस गुणोंके रूपमें, मार्गानुसारीक पेंतीस गुणों के रूपमें, इसप्रकार अनेक रूपोंमें शास्त्र में वर्णन किया गया है, उसके कहने. वाले उत्तम पुरुषोंकी दुर्लभताका विचार करना चाहिये । १२- शुद्ध देव, गुरु और धर्मको पहचानना कठिन है, पहचानकर उनको पूजना, वन्दन करना और आराधना करना यह और अधिक कठिन है, परन्तु यह ही सच्चा कर्तव्य है। इन बारह भावनामोंको निरन्तर रखना । इनके उपरान
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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