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________________ ५२८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश इससे धर्मसाधन, उच्च मनोवृत्ति और शुद्ध व्यवहारमय जीवन वहन कर सके । यह नाशवन्त और क्षणिक है, जिसका विवरण गत देहममत्वमोचन नामक पांचवें अधिकारमें हो चुका है । यह तो स्वतः सिद्ध है कि यह अपना नहीं है, यदि अपना हो तो अपने साथ आना चाहिये. परन्तु अनेकों मित्रो, सगे-सम्बधियोंके दृष्टान्तोकों देखते हुए प्रत्यक्ष है कि यह तो यहां ही रह जाता है, अतएव वास्तवमें तो यह एक मिट्टीका पिण्ड है । इस लिये इस मिट्टीके पिण्डको धर्मव्यवहारूप चाकपर चढ़ाकर, तप, जप, वृत, ध्यान आदि आकृति देकर, जबतक यह पात्र चले तबतक इसको अपने सच्चे उपयोगमें क्यों नहीं लेते हो ? इसका ध्यान रखा जायगा तो इस पिण्डसे दुःखोंका अत्यं. ताभाव होगा और जिससे अनन्त सुख प्राप्त होगा और संसारका प्रसंग ही न रहेगा । व्रत तथा तपादिक करनेसे शरीर स्वस्थ रहता है और परभवमें महान सुख की प्राप्ति होती है, इसप्रकार दुगना लाभ होता है। __चारित्रके कष्ट-नारकीतियर्चके कष्ट. यदत्र कष्टं चरणस्य पालने, परत्र तिर्यनरकेषु यत्पुनः । तयोमिथः सप्रतिपक्षता स्थिता, विशेषदृष्ट्यान्यतरं जहीहि तत् ।। ३२ ॥ " चारित्र के पालन करने में इस भवमें जो कष्ट उठाने पड़ते हैं और परभवमें नारकी और तिर्यच गतिमें जो कष्ट उठाने पड़ते हैं इन दोनोंमें अरस्परस रूपसे प्रतिपक्षपन है, अतएव सोच-विचारकर दोनोंमेंसे एकको छोड़ दे।" वंशस्थविल विवेचन-चारित्र अर्थात् व्यवहार । शुद्ध पारित्र रखने में
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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