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________________ ५०४ अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश और केवल ' यह भव मिट्ठा तो परभव किसने दीठा' वाली कहावतके समान बुद्धि रखी जाय तो सर्वथा मनुष्यभवको व्यर्थ खोदेनेके स्थानमें तो अध्यात्मसारके तीसरे अधिकारमें बताये अनुसार वेशका परित्याग कर, उत्तम श्रावकपन अंगीकार करके जन्मको साफल्य बनाना ही अत्युत्तम है। ___ यदि ऐसा जान पड़े कि वेश छोड़नेसे आत्मिक हानि होगी या वेशका आग्रह न छुटे तो उसी अधिकार में बताये अनुसार मार्गका अनुसरण कर संवेग पक्षको धारण करके भी आत्महितकी दृष्टिको न भूलादे और निःशूक या अति प्रमादी हो कर साध्यदृष्टिसे रहित होकर. अनंत संसारका उपार्जन न करे । किसी कर्मके बलसे यदि कभी अमुक अनाचरणरूप दूषण लग जावे तो उससे वेशको छोड देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। यदि ऐसा होता तो फिर दस प्रकारके प्रायश्चितोंका आगममें वर्णन न किया जाता । प्रायश्चितसे शुद्ध होनेपर भी यदि बारम्बार मोहके कारण वो ही वो भनाचरणको शासन उड्डाहनासे निरपेक्ष होकर सेवन करते रहकर अनन्तकालचक्रतक बोधिबीजका दुर्लभपना प्राप्त करना इससे तो श्रावकपन या संवेगपिक्षपन स्वी. कार करना ही आत्माको नितान्त हितकारी है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है । इस सम्बन्ध विचारहीन न होकर, तथा इसीप्रकार स्वेच्छापूर्वक प्रवृत्ति न कर उस समय तो गीतार्थका ही शरण लेना चाहिये कि जिससे आत्महित हो सके। वरना उपदेश तो सूरिमहाराजने खास ऊच्च मार्गकी ओर चढ़ाने के लिये ही किया है । यहां किसीपर खास आक्षेप करने, किसीको नीचे गिराने, या किसीकी निन्दा करने के लिये नहीं किया गया है। परन्तु मार्गम आगे बढ़ सके या ऊपरको न बढ़ा जावे तो उससे निषे तो न उतरे सह मध्यबिन्दु रखकर ही प्रयास किया गया
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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