SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काराग्रहभूमिसे छुटकारा पाकर आत्मिक भूमिमें प्रवास करनेकी अभिलाषा रखता है और जबतक वह भूमि प्राप्त न हो तब तक अविश्रान्तरूपसे पुरुषार्थ किया करता है। यह साध्य क्या है यह भी अब देख लेना चाहिये । एक बातका निर्णय है कि सर्व प्राणियोंको सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय हैं। सुखके लिये जितना प्रयास करना साध्यका ख्याल चाहिये उतना यह जीव करता है और दुःखसे छुटकारा पानेके लिये भी भरसक प्रयत्न करता है । जो विशेष समझदार न हो वे भी चाहे जितने अपढ़ क्यों न हो परन्तु सुखको साध्य मानते हैं। साध्य सर्व प्राणियोंका एक ही है, केवल मात्र उसको पहचाननेके लिये ज्ञानकी कसौटीको आवश्यकता है। कितने ही प्राणी स्त्रीसौन्दर्यके उपभोगमें, कितने ही पुत्रके प्रेममें, कितने हो लक्ष्मीके भण्डारमें, कितने ही भव्य भवनों में, कितने हो रम्य बागबगीचोंमें, कितने ही सुन्दर पदार्थों ( Furniture ) में, और कितने ही मनोहर गाडीघोड़ोंमें सुखको कल्पना करते हैं, कितने ही परोपकारके कार्यकर, देशसेवा, जातिसेवा, मनुष्यसेवा तथा प्राणीसेवा करके अथवा उनके निमित्त धनव्यय करके उसमें सुख मानते हैं, कितने ही प्रेमके लिये अपने आपका भोग कर देते हैं, कितने ही अपने पापको तप, जप, ध्यानमें लगा कर संतोषी समझते हैं, कितने हो पठनपाठन, मनन, निदिध्यासनमें समय व्यतीत कर जब उन विषयोंमें रमण करते हैं तब अत्यन्त सुखका अनुभव करते, हैं कितने ही प्राप्त हुये इन्द्रियोंके भोगोंकों अस्वीकार कर उनके त्यागमें सुख मानते हैंइसप्रकार भिन्न भिन्न बातोंमें सुख माना जाता है । इस सुखके वास्तविक स्वरूपको यह जीव नहीं समझता है इस लिये ऊपर लिखे अनुसार कितने ही सन्नी बातोंमें और कितने ही झूठी बातोंमें सुख मानते हैं । अध्यात्मग्रन्थ ऐसे प्राणियोंको उपदेश करते हैं कि तुम सुखप्राप्तिकी अभिलाषा करनेसे पहिले सथा सुख क्या है और वह कहाँ मिल सकता है, इसका विचार करो, अभ्यास करो, मनन करो; प्रथम साध्य निश्चय करके फिर आगे बढ़नेका प्रयत्न करो । बहुधा देखा जाता है कि सत्य बातके अभावमें यह प्राणो तात्कालिक इष्ट सुखमें सन्तोष जानकर परि
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy