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________________ ४२] अध्यात्मकल्पद्रुम [ द्वादश सिरपर पट्टिये पाड़कर स्थूल विषयोंमें आसक्त रहते हैं और सामान्य पुरुषको भी शोभा न देनेवाले दुश्चारित्रोंका भाचरण करते हैं उनको इस श्लोकसे बहुत कुछ सिखना चाहिये । यहां जो शुद्ध मार्ग नहीं बताते हैं, जो शुद्ध मार्गका अवलम्बन नहीं करते हैं वैसे चोयी श्रेणीके गुरुका वर्णन किया गया है। स्वयं डूबे और दूसरोंको भी डूबावें ऐसे पत्थर सदृश गुरुसे किसी भी प्रकारके लाभ होनेकी सम्भावना नहीं है । ऐसा जानकर प्रत्येक जीवको योग्य गुरुका आश्रय लेना उचित है। इस श्लोकमें कुत्सित कप्तानकी कुगुरुके साथ और प्रवाह. की संसारके साथ दृष्टान्त-दाष्टांतिकता समझना चाहिये । शुद्ध देव, और धर्म की उपासना करने का उपदेश. गजाश्वपोतोचरथान् यथेष्ट, पदाप्तये भद्र निजान् परान् वा । भजन्ति विज्ञाः सुगुणान् भजैवं, शिवाय शुद्धान् गुरुदेवधर्मान् ॥४॥ "हे भद्र ! जिस प्रकार बुद्धिमान् प्राणी इच्छित स्थानपर पहुँचने के लिये अपने तथा दूसरोंके हाथी, घोड़े, स्वारिये, बैल और रथ अच्छे देखकर रखलेते हैं इसीप्रकार मोक्षप्राप्ति निमित्त तूं भी शुद्ध देव-गुरु-धर्मकी उपासना कर।" उपेन्द्रवज्र. विवेचन-मोक्षनगर पहुँचने के लिये देवगुरु और धर्म ये स्वारियें हैं । जिसप्रकार दूसरे नगरको जाने के लिये अच्छीसे अच्छी स्वारीके लिये पुरुष प्रयत्न करते हैं, परके तैयार करते हैं या मांगकर लाते हैं, इसीप्रकार मोक्षनगर पहुंचने निमित्त तुझे अठारह दूषणरहित देव, पंचमहाव्रतकों धारण करनेवाले गुरु
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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