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________________ ४४०] अध्यात्मकल्पद्रुम [ द्वादश र्येषां प्रयोक्ता भिषगेव मूढः ॥२॥ " जहाँ धर्मके बतानेवाले गुरु शुद्ध नहीं होते हैं वहां विधिरहित धर्म करनेसे पाणी मोक्षकी प्राप्ति नहीं कर सकता है। जिस रसायणको खिलानेवाला वैद्य मूर्ख हो उसे खानेसे व्याधिग्रस्त पाणी निरोगी नहीं हो सकता है । " उपजाति, विवेचन-जहाजका कप्तान यदि मूर्ख हो तो वह जहाज निश्चित बन्दरपर नहीं पहुंच सकता है, गाड़ी चलानेवाला मार्गको न जानता हो तो इधर उधर गाड़ी चलाकर चक्कर लगाता रहता है परन्तु इच्छित स्थानपर नहीं पहुँच सकता है, घड़ीकी रचना न जाननेवाला पुरुष उसको सुधारनेकी कोशिश करनेसे ऊलटी हानि करता है, इसीप्रकार शुद्ध धर्मको न जाननेवाला या न करने. वाला अपने साथ आनेवालेको भी संसारचक्रमें डालता है। अनुभवसे जान पड़ता है कि जिस विषयका खुदको ज्ञान न हो उस विषयमें भी सिर पटकनेवाले दुनियां में अनेकों प्राणी होते हैं। रोगीके पास जानेपर प्रत्येक पुरुष औषध बताने लग जाता है, मानो स्वयं बड़े भारी वैद्य हो ऐसी सत्तासे बोलते हैं । इसप्रकारका औषधिसे संसारको बहुत हानि पहुंची है; परन्तु स्वार्थान्ध संसार लोभसे या रागसे ऐसे ऊँट वैद्योकों ही मान करते हैं। रसायण यदि योग्य रीतिके अनुपानसे खाने में आवे तो शरीरको बहुत दृढ़ बनाती है, किन्तु यदि उसकी क्रियामें कुछ अन्तर हो जावे तो सम्पूर्ण जीवनपर्यंत दुःख भोगना पड़ता है, कारण कि बहुधा वह शरीरमसे फूट फूट कर निकलने लगती है। मूर्ख वैद्य जो रसायन खिलावे तो अवश्य उसमें भूल हुए बिना नहीं रह सकती है । इससे इच्छित लाभकी प्राप्ति नहीं हो सकती है, परन्तु बहुधा कितनीही बार उलटा अपना होता है वह भी नष्ट हो जाता है। इसीप्रकार अज्ञानी अथवा विकारी गुरुके बताये
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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