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________________ ४१४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [एकादश स्वयं अपने दृष्टान्तसे जान सकता है, इसलिये तुझे अपने निजको इष्ट प्राप्ति निमित्त परगुणस्तवन करना अत्यावश्यक है । यह तो व्यवहारको बात हुई, परन्तु जब निष्कामवृत्तिसे दूसरोंके गुणोंकी प्रशंसा की जाती है तब तो प्रशंसा करनेवालेको अत्यन्त मानन्दकी प्राप्ति होती है। सद्गुण यह ऐसा शुद्ध कांचन है कि चाहे इसको प्रशंसा की जाय या न की जाय परन्तु यह तो तीनों कालोंमें सोना ही रहता है । इस पर ओप चढ़ने पर यह उत्तम दिखाई पड़ता है परन्तु इसकी असली किमत तो तीनों कालोंमें एक-सी ही रहती है । इसप्रकार दूसरोंके छोटेसे सद्गुणको भी बड़ा समझकर उसकी स्तुति-स्तवन-प्रशंसा की जाय तो उसमें प्रशंसा करनेवालेका गुप्तरूपसे गुणोंके लिये मान, गुणवान होनेकी अभिलाषा और अपना गुणी होना प्रकट होता है । इसप्रकार दूसरोके गुणोंकी प्रशंसा करना, दूसरे रूपसे अपनी ही प्रशंसा कर. नेके समान है । मुनिसुन्दरसूरि महाराजने बणिकका हिसाब बताया है कि यदि तुम कुछ किसीको दोगें तो तुमको भी मिलेगा, परन्तु उसका वास्तविक स्वरूप तो यहां बताया गया है । भर्तृहरि कहते हैं कि संतपुरुष परगुण स्तवन करके अपने गुण प्रकट करते हैं यह उनके चरित्रकी आश्चर्यता है । कहने का प्रयोजन यह है कि दूसरोंके गुणोंको सुनकर ईर्षा तो स्वप्नमें भी न करना चाहिये । उसकी भोर स्वाभाविक प्रेमसे देखना चाहिये । गुणप्राप्ति तथा स्वात्मशुद्ध दशापर प्रारोहित होनेका यह मुख्य उपाय है। निज गुणस्तुति तथा दोषनिन्दापर ध्यान न देना. जनेषु गृहणत्सु गुणान् प्रमोदसे, ततो भवित्री गुणरिक्तता तव ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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