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________________ ४१०] अध्यात्मकल्पद्रुम [एकादश कितना ही उपयोगी हो तो भी यदि वह अपनेको प्रतिकूल हो तो उसे छोड देनेमें कोई बाधा नहीं है; परन्तु साध्यधर्मको किसीभी प्रकारसे हानि न होने पावे यह विचार कर क्रिया तथा वर्तन करना चाहिये। ____ . धर्मप्राप्तिकी कितनी आवश्यकता है इसका पूरा पूरा वर्णन करना अति कठिन है । जो जो प्राणी तथा प्रजा अपने धर्मका त्याग कर देते हैं वे इतिहासके पन्नेपरसे विलीन हो जाते हैं। रोमन प्रजाने जब धर्मका त्याग किया तो उन्होने अपना राज्य खोया और धीरे २ सबकुछ खो दिया । वर्तमान समयमें पाश्चात्यप्रजामें धार्मिक संस्कार कम होते जाते हैं जिसके लिये तत्वचिन्तक अति चिन्तातुर रहते हैं। इसीके कारण आत्महत्या असंतोष महाप्रवृत्ति होती रहती है और कमभाग्यसे हिन्दुस्तानकी प्रजा भी यदि इसका अनुकरण करेगी तो यह अपना सर्वस्व खो देगी और धीरे धीरे इतिहासके पन्नोपरसे भी इसकी श्रेष्ठताका अन्त हो जायगा; परन्तु इसके सुपुत्र अब इस भूलको महसूस करने लगे हैं जिससे सम्भव है कि हम इस भूलसे छुटकारा पा सकेगें। आधुनिक सभ्यता Civilisation में अतिव्यवसाय, अतिखर्च, नवीन पदार्थोंका संग्रह, नूतन वस्तुओंके प्राप्त करनेकी कामना और धनकी गुलामगीरी प्रत्यक्ष दिखाई देती है । इसमें स्वार्थत्याग, परोपकारपरायणवृत्ति और अशक्तका पालन नहीं होता है, भागदौडमें जो आगे निकल जाता है बस उसीका जय है। इसमें धर्म शब्दका लोप होता है, अर्थात् बादमें प्रेम, संतोष, स्थिरता ये तो आही नहीं सकते हैं। इससे प्रजासत्ताक राज्य होने तथा समष्टि बढ़नेकी सम्भावना है किन्तु इससे आत्मिक शांति मिलना कठिन है, वास्तविक आनंद मिलना कठिन है, तथा निरान्त बैठकर स्वस्वरूप मानना कठिन है । आर्य प्रजाके
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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