SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार] वैराग्योपदेशाधिकारः [४०१ नही कर सकता है, शीतके मारे चिल्लाता है और तपतमें टट्टी, कोल्ड्रीन्क मादि अनेक चिजोंका उपयोग करता है। एक मस्खी या मच्छर भी बैठ जावे तो इसका दम घुटने लग जाता है और तपस्या भी नहीं करता है। एक उपवासके करनेपर भी मानों दूसरोंपर अहसान कर देता है और उसमें भगले दिनकी सायंकालको तथा दुसरे दिन प्रातःकालको तो इतनी धमाधम मचाता है कि वैसा उपवास करनेसे भोग दुगना होता है। इसीप्रकार छोटी-बड़ी प्रत्येक बाबतमें यह जीव आग्रहपूर्वक कष्टसे दूर रहनेका प्रयास करता है; परन्तु अपना वर्तन, व्यव. हार, भाचरण ऐसा रखता है कि जिन दुःखोसे वह यहाँ डरता है वैसे ही उनसे लखोगुने अधिक कष्टदायक दुःख सहन करने पड़ते हैं । यहाँ पुण्यधन खा जाता है और फिर उसके दुःख ही दुःख भोगनेकी बारी आती है । गुरुमहाराज कहते हैं कि'अरे मूर्ख ! तेरी बुद्धिके लिये मैं क्या कहूँ ? तू चाहे गृहस्थ हो, चाहे यति हो; परन्तु तुझे एक कार्य अवश्य करना चाहिये और वह यह है कि मनुष्यभवके परिणाममें सम्पत्तिमें टोटा न माने पावे । जितनी पूंजी तू लेकर आया है उसमें कुछ बढ़ोतरी होनी चाहिये ।" जो गुरुमहाराजके इस उपदेशपर ध्यान देगा तो तुझे अमोघ लक्ष्मी प्राप्त होगी। अतएव विचारपूर्वक ऐसा प्रयास कर कि जिससे नरक-निगोदके कष्टोंसे बच सके, वरना फिर यदि उस समय तूरोयगा या चिल्लायगा तो भी कोई तेरी सुनाई न होगी। इस श्लोकसे एक दूसरा भाव भी प्रगट होता है । साधुधर्म वहन करनेमें परीषह सहन करने पड़ते हैं यह सत्य है और इसके भयसे ही अनेकों प्राकृत प्राणी उस धर्मको अंगीकार नहीं कर सकते हैं और उससे डरते रहते हैं; परंतु उसके बदले यह होता ५१
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy