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________________ ३९० ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ दशबाँ जब तू स्वयं जानता है तो फिर हे भाई ! तू दुर्गति के दुःखोंसे क्यों नहीं डरता है ?" वंशस्थ. विवेचन-अनेकों जीव पापमें भी अभिमान करते है । स्वयं पापात्मक व्यापार करता हो तो दूसरोंको कहता है कि अरे भाई ! इस व्यापारसे ऐसा लाभ और अर्थशास्त्रोंका ऐसा विचार है और ऐसा हे वैसा है आदि । व्यापारकी प्रवृत्तिमें जो असव्यापार करता है और उससे जो सुख मिलनेकी अभिलाषा रखता है उस सुखका आधार तो एक मात्र जिन्दगीपर ही है, इस लिये प्राप्त किया हुआ सुख बहुधा इस भवतक ही चलेगा, इससे और अधिक कुछ भी साथ नहीं पावेगा। उपार्जित की हुई लक्ष्मी, बनाई हुई हवेलिये, बाडिये, सुन्दर घोडोंकी जोड़िये और पहनेके कपड़े तथा छिड़कनेके सेन्ट लवन्डर सर्व यहीं रहनेवाले हैं । जीवनका भरोसा नहीं है । सुस्वस्थ दिखाता पुरुष भी पलभरमें उड़ जाता है । जीवन ऐसा अस्थिर है और पापकर्मोंसे आगामी भवमें दुःख तो बहुत होनेवाला है तो फिर तुझे वे दुःख अधिक कष्टदायक जान पड़ते हैं या यहाँके अल्पस्थायी सुख अधिक प्रिय जान पड़ते हैं ? हे भाई ! थोड़ा-सा विचार कर, पापकर्मोको करके उनपर पंडिताईका तीव्र रस चढ़ाकर निकाचितबंध न कर । अमुक प्रवृत्ति किये बिना नहीं चल सकता हो उसको सामान्य रूपसे करे परन्तु उसपर और अभिमानद्वारा नया रस चढ़ाना यह विद्वत्ताका लक्षण नहीं है । शेठ और महन्त. इस सम्बन्धमें एक दृष्टान्त बहुत मनन करने योग्य है । एक सेठने सुन्दर बंगला बनवाया । उसमें बहुत-सा फरनिचर एकत्र किया और रंगरोगान करके उसे भव्य मन्दिर बना दिया । उसके यहाँ जितने महमान आते उनको बंगलेका प्रत्येक
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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