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________________ अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३८७ कहते हैं कि " धर्म अर्थ इहां प्राणने जी, छंडे पण नही धर्म" जो सत्त्ववंत प्राणी होते हैं वे धर्मके लिये जीवन दे देते हैं किन्तु जीवनके लिये धर्म कदापि नही छोड़ते हैं। कारण कि धर्म ही सर्वस्व है और इसीसे सब कुछ प्राप्त होता है; परन्तु जब धर्मको छोड़ दिया जाता है तो फिर ऐश्वर्या, योवन, वैभव आदि कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता है और जो कुछ प्राप्त हो गया हो वह भी नष्ट हो जाता है । अतएव प्राणोंके जाने पर भी धर्मका त्याग न करना चाहिये। इस हेतुसे ही सुक्तमुक्तावलीके कर्ता ने धर्म, अर्थ और कामरूप तीन पुरुषार्थोमेंसे केवल धर्मको ही प्रधान बताया है। 'तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति' उन तीनों प्रकारके पुरुषार्थोंमेंसे ज्ञानीपुरुष धर्मको ही सर्वश्रेष्ठ बतलाते हैं । जब ऐसा कहा जाता है कि हे सद्गृहस्थो ! तीनो पुरुषार्थ सामान्यतया साधने योग्य है तब भी जब धर्मकी कोई कमी न होती हो तब समझना ( इस विषयपर विशेष विवेचन बारहवें अधिकारमें किया जायगा )। ___सकाम दुःखसहन-उससे लाभ. दुःखं यथा बहुविधं सहसेऽप्यकामः, कामं तथा संहसि चेत्करुणादिभावैः । अल्पीयसापि तव तेन भवान्तरे स्यादात्यन्तिकी सकलदुःखनिवृत्तिरेव ॥ १८ ॥ " बिना इच्छा भी जिस प्रकार तू अनेक प्रकारके दुःख भोगता है उसीप्रकार यदि तू करुणादिक भावनासे इच्छापूर्वक थोड़ेसे भी दुःख सहन करले तो भवान्तरमें सदैवके लिये सर्व दुःखोंसे निवृति हो जायगी।" वसंततिलका. एकीयाचार्यमतेनानित्यमात्मनेपदमनुबन्धानिर्दिष्टमिति परस्मैपदम् ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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