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________________ ३७६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ दशवाँ महाप्रयाससे प्राप्त हुए मनुष्यभव आदि सामग्री रागद्वेषादि कारणों से निष्फल होजाती है, इतना ही नहीं अपितु अनन्त जन्ममरण भी पाते हैं और पुण्यवान् गृहस्थोंका ऐश्वर्य देखकर शक्तिहीन रंक यदि उसकी समानता करने लगे तो स्वयं ही नाशको प्राप्त होता हैं । यहां मुख्य उपदेश यह है कि अपनी जो स्थिति हो उसमें संतोष रखना चाहिये । संसारमें अनेकों स्थानों. पर सुख दृष्टिगोचर होता है इससे स्वयं उससे न ललचा जाना चाहिये और धर्मसामग्री प्राप्त होनेपर रागद्वेष करके उसको निष्फल न बना देना चाहिवे । दो बनियोंका दृष्टान्त किसी ग्राममें दो बनिये रहते थे । वे अनेक कार्य किया करते थे किन्तु भाग्यहीन होनेसे पासमें पैसा एकत्र नहीं होसकता था। उन्हो ने पैसे एकत्र करने निमित्त अनेकों उपाय किये, परन्तु जब किसी भी उपायसे पैसे प्राप्त न होसके तो नगरके बाहर एक यक्षके मन्दिरमें जाकर उसकी सेवा करने लगे। एक दिन यक्ष अत्यन्त प्रसन्न हुआ तब उन्हों ने उससे द्रव्य मांगा। यक्ष ने कहा " हे. वत्सो ! यदि तुमको पैसोंकी बहुत इच्छा हो तो जाओ, मैं तुम्हारे पर प्रसन्न हुआ हुँ। अँधेरी चौदशकी रात्रिको तुम दोनों एक एक गाड़ी तैयार कर रखना । मैं तुम दोनोंको गाडी सहित उस रात्रिको रत्नद्वीपमें लेजाउंगा। वहाँ अनेकों रत्न मार्गमें विखरे हुए पडे हैं । तुमको वहाँ दोपहर तक रखुंगा । इसलिये वहाँ तुमसे जितने रत्न लिये जावे लेलेना । दोपहर पश्चात् तुमको गाड़ी सहित उठाकर फिरसे इस स्थानपर ले आउंगा।" वणिक इस बातको सुनकर प्रसन्नताके मारे गद्गद् होगये और उक्त रात्रिको बहुत बड़े मजबूत और सुन्दर दो गाड़िये तैयार कर ले आये । उनमें बहुतसे रत्न एकत्र कर
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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