SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराग्योपदेशाधिकारः [ ३७१ अपने देशको लौटे । तीसरे भाईका हाल सुनकर सबों ने हँसी उड़ाई और उसके बाप ने उसे घरसे बाहर निकाल दिया । सब भादमियों ने उसकी निन्दा की। प्रथम तथा दूसरे भाई निमित्त अनुक्रमसे विशेष तथा अल्प संतोष प्रगट किया ।। उपनयः-मनुष्यभव प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । इसकी प्राप्तिमें अनेको विघ्न आ पड़ते हैं। ऐसे अनेकों कष्टोंसे प्राप्त हुमा मनुध्यभव और उसमें भी जैन धर्म, निरोग शरीर, गुरुका योग प्रादि संयोग-सामग्री प्राप्त होना भी उतना ही कठिन है । महापुण्यों के योगसे यह सब प्राप्त होता है । इस मनुष्यभवको प्राप्त कर कितने ही दुःसाध्य प्राणी तो बेचारे लाड़ी, वाड़ी और गादीकी लहरमें लहका कर धर्म क्या है यह भी नहीं जानते है। ऐसे प्राणी पूण्यधन खो बैठते हैं, प्राप्त हुए पैतृकधनको खो देते हैं और कुपुत्रके समान अत्यन्त पैतृकसम्पति प्राप्त होने पर भी गरीब होजाते हैं । कितने ही पुरुष तो प्रतिकूल संयोगों के लिये पापात्मक कार्य करते हैं परन्तु उक्त कनिष्ठ प्रकारके पुरुष तो उत्तम संयोगोंको ही दुष्ट बना देते हैं। मध्यम श्रेणी के पुरुष साधारण जीवन व्यतीत करते हैं । वे किसी को कुछ हानि नहीं पहूँचाते है । उसीप्रकार कोई महान् स्थूल या मानसिक परोपकार भी नहीं करते हैं। जो उत्तम प्रकारके जीव हैं वे तो यहाँ महाउत्तम वर्तन रखकर परोपकारमें विभूति-आत्मिक और पौद्गलिक-व्यवहार में लाकर इस भवमें लहेर करते हैं और परभवमें भी आनन्द प्राप्त करते हैं। जो तीसरे भाईके समान धन खो देते हैं उसको तो अनन्तकालपर्यंत चोराशी लाख योनियों में भटकना पड़ता है, वह मर्यादा रहित है; और पराक्रमशाली जीवोंको मध्यम भाईके समान बैठा रहना अश्रेष्ठ है । तेज घोड़ोंको तो अपना कार्य पूरा करना ही उचित है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy