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________________ द्वेषका विचित्रपन, कामका अन्धपन, क्रोधका दुर्जयपन, कषायका कलिष्टपन, विषयोंका विरसपन, पापस्थानकोंका अघोगमनपन, प्रेमका अनित्यपन, जीवनको क्षणिकपन, आदि अनेक विषय अध्यास्मशास्त्रमें बतलाये हुए होते हैं । मनुष्यको मनोवृत्तिको बराबर अंकुशमें रखनेवाला यह अध्यात्म विषय बहुत अगस्यका है। द्रव्यानुयोगके अनेकों विषयोंमेंसे हमारा प्रस्तुत विषय अध्यात्मका है । इससे वह क्या है ? उसके अधिकारी कौन हैं ? उनके लक्षण क्या हैं ? इस जमानेमें इस विषयको किसी भी प्रकारसे प्रावश्यकता है या नहीं ? इन बातोंपर विचार करना यहां प्रस्तुत है। आत्मा सम्बन्धी और उसको उद्देश करके जो ज्ञान होता है वह अध्यात्मज्ञान कहलाता है। आत्मा कौन है और कैसा है ? ऐसा प्रश्न सहज ही में उत्पन्न हो सकता है । इस विषयमें विशेष उतरनेसे बहुत विस्तार हो जाता है, परन्तु जैन शास्त्रकार इसके सम्बन्धमें आत्माका स्वरूप क्या कहते हैं उसको बहुत संक्षेप रूपसे ध्यानमें __रखना यह इस ग्रन्थको समझनेकी प्रथम सिढ़ी है। अपने शरीरमें गमन करनेकी शक्ति पैरमें नहीं है, देखनेकी शक्ति वक्षुओंमें नहीं है, सुंघनेकी शक्ति नाकमें नहीं है परन्तु एक अंतरंग शक्ति ऐसी है जो इन सबोंको नियममें रखती है। यदि ऐसा न हो तो मृत शरीरके भी पैर, नाक और चक्षु होते हैं तो फिर वह उसका उपयोग क्यों नहीं कर सकता है ? इस अन्तरंग सत्ताको ही आत्मा कहते हैं । वह जब निर्लेप अवस्थाको प्राप्त करती है तब तो तद्दन शुद्ध है और उसके प्रदेश निर्मल और अरूपी हैं, परन्तु कर्म पुद्गलके अनादि सम्बन्धसे वह विचित्र वेशोंको धारण करती है और इसलिये उसका मनुष्य, तिर्यंच, देवता और नारकी आदि नाम रक्खा जाता है, कर्मके सम्बन्धसे ही वह कामक्रोधादिक करती हैं और सुख दुःख सहन करती है। उसके साथ लगे हुए और जो लग रहे हैं वे सब कर्म पौद्गलिक ही हैं, उनको शक्तिसे आत्माकी शक्तिका हास हो जाता हैं और वह संसारमें भटकती है । वस्तुतः आत्मरका स्वरूप-लक्षण ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय है । सर्व वस्तुओंको तथा स्वरूपसे प्रत्येक
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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