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________________ - [.३२५ অগিচ্চা ] দ্বিমলাবিন্ধাৰ स वञ्चितः पुण्यचयैस्तदुद्भवः, फलैश्चही !ही!हतकः करोतु किम् ? ॥१३॥ __" वशीभूत मनसे महाउत्तम प्रकारका पुण्य भी बिना बिलकुल कष्ट उठाये ही सिद्ध किया जासकता है । जिसका मन वशमें नहीं होता है उसकी पुण्यकी राशी भी उग ली जाती है और उससे होनेवाले फलों में भी ठगा जाता है । (अर्थात् पुण्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है और उससे होनेवाले फलोंकी प्राप्तिमे भी वंचित होजाता है । ) महो! अहो !! ऐसा हतभागी जीव बेचारा क्या करे ? (क्या कर सकता है)?" वंशस्थविल. . विवेचन-यदि मन वशमें होतो यहाँ ही इन्द्रासनकी स्थापना कर सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है अर्थात् मनको वशमें करनेवाले के लिये कोई भी कार्य अशक्य नहीं है। अन्य शों में जिसके मनपर अंकुश नहीं है, जिसका मन मस्थिर है और जिसके मनमें संकल्पविकल्प उठते रहते हैं वह एक भी कार्यको सिद्ध नहीं कर सकता है। चिदानन्दजी महाराज ने कहा है किबचन काय गोपे हर न धरे, चित्त तुरंग लगाम । तामें तुं न लहे शिवसाधन, ज्युं कणसुने दान ॥ जब लग भावे नहीं ठाम । इसलिये जबतक चित्त-घोड़े की लगाम तेरे हाथमें नहीं है तबतक तुझे मोक्ष की प्राप्ति होना कठिन है। ज्ञानसागरमें कहा गया है कि:'अंतर्गतं महाशल्यमस्थैर्य यदि नोद्धनम् । क्रियोषधस्य को दोषस्तदा गुणमयच्छतः ॥ अस्थिरतारुपी हृदयगत महाशल्यको यदि हृदयसे न
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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