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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम [नवमा होकर उस जहाजका परित्याग कर देते हैं और संसारसमुद्रमें गिर जाते हैं वे मूर्ख पुरुष दीर्घदृष्टिवाले कदापि नहीं कहे जासकते हैं।" उपजाति. विवेचन-यदि तुमने कभी समुद्रकी यात्रा की हो तो मालूम होगा कि समुद्र इतना विशाल, अगाध तथा लम्बा है कि बिना जाहाजके हम उसको पार नहीं कर सकते हैं, इसीप्रकार यदि समुद्र भरपूर भरा हुआ हो और जहाज फट गया हो तो हम उसे पार नहीं करते हैं; परन्तु कदाच कोई ऐसा कर भी सके फीर भी वह पुरुष तो जिसने कि जहाजको छोड़ ही दिया हो, कभी भी समुद्रको पार नहीं कर सकता है। ऐसे पुरुषको यदि मूर्ख न कहा जाय तो क्या कहा जाय ? इसीप्रकार संसारसमुद्र है, इसका पार पाकर दुःखका अन्त कर तथा मोक्षकी प्राप्ति करना सबका यही दृष्टिबिन्दु है और इसको पार करने निमित्त धर्मरूपी जहाजके साधनकी आवश्यकता होती है। धर्मसे तात्पर्य श्रात्मस्वरूपमें स्थिरता और रमणता है । धर्मसे भ्रष्ट करने निमित्त यह मनपिशाच सदैव इस जीवको प्रमादरूपी मदिरा पिलाकर अंधे समान बना देता है, इसके वशमें जो प्राणी हो जाता है उसको न तो कार्याकार्यका ही विचार रहता है न अपने कर्तव्यका ही भान रहता है और कदाच थोडासा मान होता है तो वह भी भूल जाता है। ऐसी स्थिति होनेपर आत्मस्वरूपरमणता तो हो ही कहाँ सकती है ? इसके परिणामस्वरूप प्राणी धर्मभ्रष्ट होजाता है, जिससे वह समुद्र तैरनेके जहाजका परित्याग कर देता है और अपार समुद्र में इधरउधर गोते लगाया करता है। किसी समयमें पेमे चला जाता है और किसी समय बाहर निकल आता है, परन्तु जहाज बिना वह उसको पार नहीं कर सकता है, उल्टा अनन्तबार चौराशी लक्ष
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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