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________________ २९४ ] . अध्यात्मकल्पद्रुम [अष्टम हैं, जोहाको खीचते हैं और इस इस प्रकारको अन्य अनेकों वेदनायें देते हैं जिनका कि ख्याल आना भी कठिन है। इसके उपरान्त तीसरी अन्यान्कृत वेदना है, पहलेके वैरभावसे जीव आपसमें मारकाट करते हैं, लड़ते हैं, कदर्थना करते हैं और कराते हैं। ऊपरकी हकिकत ऊपरसे मालूम हुआ होगा कि क्रोधी, महंकारी, कपटी, लोभी, विषयमें आसक्त प्राणी उक्त गतिमें जाते हैं। जो तेरी कल्पनाशक्ति उत्तम हो तो तुझे ऊपरका स्वरूप देख लेनेपर भी नारकीका भय क्यों नहीं होता है ? विषयजन्य सुख-कल्पित सुख, क्षणभर-पांच मिनिट-घंटा-दिनभर ही रहता है जब कि उससे प्राप्त किया नारकीका दुःख सागरोपम दक चलता है । इसलिये अब जो तुझे श्रेष्ठ प्रतीत हो उसको ग्रहण कर । तियंचगतिके दुख बन्धोऽनिशं वाहनताडनानि, क्षुत्तड्दुरामातपशीतवाताः । निजान्यजातीयभयापमृत्यु दुःखानितियक्ष्विति दुस्सहानि ॥ १२ ॥ " निरन्तर बन्धन, भारका वहन, मार, भूख, तरस, दुष्टरोग, ताप, शीत, पवन, अपनी तथा दूसरी जातिका भय और कुमरण-तिर्यचगतिमें ऐसे असह्य दुःख हैं।" उपजाति. विवेचन-बन्धनसे गाड़ी, हल, चक्की आदिके ताप, शीत और पवनसे अनुक्रमसे ग्रीष्म, शरद, वर्षाऋतुओंके उपद्रव होते हैं । अपनी जातिका भय अर्थात् हाथीको हाथीका भय, गदहेको गदहेका भय आदि और दूसरी जातिका भय अर्थात् मृगको सिंहका, चूहेको बिल्ली आदिका भय रहता है | अपितु नाक
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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