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________________ ६९०] - अध्यात्मकल्पद्रुम [ अष्टम पुरुषके बड़े तथा धनवान बनने की आवश्यकता नहीं किन्तु भले-उत्तम होने की आवश्यकता है। 1. इस अध्यायसे यह भी जाना जाता है कि विशेष अभ्यास न किया हो फिर भी शुद्ध श्रद्धासे क्रिया करनेवाला जीव उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता है । आखिरी श्लोकमें " रासभ" का दृष्टांत मनन करने योग्य है । ज्ञानप्राप्तिकी अत्यन्त आवश्यकता है, किन्तु ज्ञान प्राप्त कर उन्नत होना चाहिये; अहंकार या ढोंग नहीं करना चाहिये । मुख्य मार्ग यही है कि ज्ञानप्राप्ति कर उसको व्यवहारमें लावे और दूसरोंके साथ शुद्ध व्यवहार रक्खे, क्योंकि ज्ञानफल विरति है, अन्यथा वह ज्ञानबन्धरूप है । यदि तूं साधु है तो संसारकी असारताका विचार कर, धर्मोपदेशद्वारा मनुष्योंको सुमार्गगामी बना, इन्द्रियोंपर संयम रख, मनपर अंकुश रख, यदि तूं श्रावक है तो व्रतकी दृढ़ता बनाये रख, शुद्ध व्यवहार रख, चित्तवृत्तिमेंसे कचरा निकाल फैक, दिखाव करनेकी अभिलाषामें न फँसजा । वर्तमानयुगमें फंस जानेका कारण बाह्य देखाव ही है और इसमें अनेकों पुरुष लुभा जाते हैं। चोदह पूर्वधर जब प्रमादके वशमें होकर निगोदमें भटकते हैं तब साधारण रीतिसे सामायिक करनेवाले मोक्ष प्राप्त करते हैं इसका क्या कारण है ? यह सूक्ष्म बुद्धिसे विचारने योग्य है। श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान किये बिना अंगारमर्दकाचार्यका ज्ञान किस काम आया ? और स्कंधाचार्यके पांचसौ शिष्योंकी क्या गति हुई और उनकी खुदकी गति भी ज्ञान होनेपर भी शमके अभावसे कैसी हुई ? उचित ज्ञानके साथ उच्च वर्तन, इन्द्रियदमन, चितपर अंकुश आदिके होनेपर ही वाञ्छित लाभकी प्राप्ति होती है। इस विषय निमित्त श्रीहरिभद्रसूरि महाराजका नवमां
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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