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________________ अधिकार ] शस्त्राभ्या और वर्तन [२९॥ सकते हैं। इसीप्रकार होनेका आडंबर करनेवाले कितने पुरुष इस वर्गमें आते हैं । अभ्यासका फल यही है कि प्रात्मपरिणति सुधारना, यह न हो सके तो फिर अभ्यास बंध्य है । प्रन्धकार स्वयं निचेकी आठवीं गाथामें इससे भी नीची हदमें इसवातको रखते हैं। बीवनका हेतु, अभ्यासका हेतु क्या है और कहाँ म सावा है इसका विचार करें। लोकरंजन करनेवाले अण्याचीका पेटुपन चोथे लोकमें हम विस्तारपूर्वक पढ़ चूके है । इसमें विशेष विचार करने योग्य बात. यही है कि परभवमें तू कहां जायगा ? तेरे आगम कहां जायेगें? तेरा संयम कहां जायगा ? तेरा प्रेत्य हित कहां जायगा और जिनसे तू कीर्तिकी अभिलाषा रखता है वे कहां जायेगें ? थोडेसे माने हुऐ मान नामके मनोविकारको तृप्त करने निमित्त तेरा बहुत बिगाड़ होता है और पूरी तृप्ति भी नहीं होती है । यहां मरना तो अनिवार्य ही है फिर बादकी तेरी गतिको तू नहीं जानता है और अन्तमें संसारसमुद्रके विशाल भयंकर खहेमें तेरा जीवन-वहाण तेरेको दुःखमें डालदेगा तब फिर तेरा कीर्तिका लाभ और इस निमित्त सहन किये हुए परीषह तेरेको कुछ लाभदायक नही होगें। यहां केवल कहनेका उद्देश्य यही है कि शास्त्राभ्यास करके संयम रखना चाहिये। टीकाकार नोट लिखते हैं कि "पिता पुत्रको शिक्षा देने निमित्त जो तिरस्कारके शन लिखे तो वेह उचित हैं।" .. केवल अभ्यास करनेवाले और अल्पाभ्यासी . साधकमें कौन श्रेष्ठ है ? धन्याः केऽप्यनधीतिनोऽपि, सदनुष्ठानेषु बद्धादरा। दुःसाध्येषु परोपदेशलवतः ..
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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