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________________ २०० अध्यात्मकल्पद्रुम [ अष्टम "सम्यग्दृष्टिकी बुद्धि ‘मतिज्ञान' कहलाती है और मिथ्या. दृष्टिकी बुद्धि ' मति अज्ञान' कहलाती है । मतिमें कोई फेरफार नहीं है । श्रुतज्ञानके सम्बन्धमें भी इसीप्रकार समझे " महातर्क करनेवाले हों फिर भी जबतक ज्ञानका प्रभाव आत्मिक शुभ प्रवृतियोंपर नही होता तबतक उस ज्ञानको शास्त्रकार अज्ञान ही कहते हैं; और अज्ञान तो कषायादि महारिपुओंसे भी अधिक खराब है । अत: यदि कोई पुरुष केवल विद्वान हो तो उससे कोई विशेष खुशी नहीं होती है। वास्तविक तुलना तो प्रवृतिपर ही होती है, और जो यह नहीं विचारते कि मेरे अमुक कार्यका आत्मिक उन्नति तथा अवनति के साथ क्या सम्बन्ध है अथवा जो विचार करनेकी आवश्यकता भी नहीं समझते हैं और जो विचार करके उन्नतिके मार्गमें प्रवृत्ति नहीं करते हैं वे वस्तुतः अज्ञानी ही हैं, संसाररसिक ही हैं, संसारमें भटकनेवाले ही हैं और इस. लिये उनको पेटु कहना उपयुक्त ही है । जो अपने पेट भरने तक का विचार करके बैठ रहते हैं वे पेटु कहलाते हैं । यहा संसारकी वृद्धि करनेवाले को यह नाम देना सार्थक है, विचारपूर्वक समझने योग्य तथा समझमें आसके ऐसा है। __ हमारे अनुसार मुनिसुन्दरसूरि महाराज भी जोर देकर कहते हैं। ग्रन्थकारको बहुवचनमें लिखनेका अधिकार है अतः इसमें मान जैसा कुछ नहीं है । विषयकों पुरुषोंके मनपर जमाने निमित्त जोरके साथ कहनेकी यह पद्धति बहुत प्रभावदायक है। टीकाकारके कहने अनुसार उसी समान धर्मवालोंकी एक वाक्यता अर्थात् एकसे विचार रखनेवालोंका सर्वानुमति अनुसार हुआ निर्णय बताते हैं । शास्त्र पढ़कर क्या करना ? कि मोदसे पण्डितनाममात्रात् ? शास्त्रेष्वधीती जनरअकेषु ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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