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________________ २७८ ] अध्यात्मकल्पग्रुम [अष्टम यदि उसका प्रभाव न पड़ा हो तब ऐसा भयंकर परिणाम आता है । मानसिक विद्वत्ता ( Mental Education) और अन्त:करणकी केलवणी ( Moral Education ) की भिन्नता यहाँ भलिभांति दृष्टिगोचर हो जाती है। एक . विद्वान् कहलानेवाले पुरुषको अशुद्ध व्यवहारमें प्रवृत्त होते देखाजावे तब समझना चाहिये कि उसका ज्ञान अभीतक प्रथम पंक्तिपर ही है। प्रवृतिमें आत्माको यथास्थित लाभ अलाभका सद्भाव बतानेवाला जबतक उसके ज्ञानका विषय न हो तबतक ज्ञान केवल आडंबर मात्र होता है, और ऐसे ज्ञानको शास्त्रकार अनेक प्रसंगपर अज्ञान ही कहते हैं। __ यह और इसके बादके दो श्लोक विपरीत मार्गमें भ्रमण करनेवाले, पण्डित होनेका दावा रखनेवाले और शुष्कवादियोंपर गहरा आघात करते हैं । प्रत्येक अभ्यासीको इसपर ध्यान देनेकी अत्यन्त आवश्यकता है। परलोकहितबुद्धिरहित अभ्यास करनेवालोंको. मोदन्ते बहुतर्कतर्कणचणाः, केचिजयाद्वादिनां। काव्यैः केचन कल्पितार्थघटने, __ स्तुष्टाः कविख्यातितः॥ ज्योतिर्नाटकनीतिलक्षणधनु, र्वेदादिशास्त्रैः परे। ब्रूमः प्रेत्यहिते तु कर्मणि जडान्, कुचिम्भरीनेव तान् ॥ ४॥ "कितने ही अभ्यासी अनेक प्रकारके तर्कवितकोंके विचारों में प्रसिद्ध होकर वादियोंको जीतकर आनंद अनुभव
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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