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________________ २७४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ अष्टम होनेपर ही भावनारूप अंकुर भी उसमें उग सकता है। इस प्रकार वतनपर प्रभाव डालनेवाला तत्त्वसंवेदन ज्ञान जब प्राप्त हो जाता है तब शास्त्राभ्यास बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। मतिअज्ञानके क्षयोपशमसे जो थोड़ा थोडासा वस्तुस्वरूप जाना जाता है वह तद्दन ऊपर ऊपर ही का है, परन्तु जब वस्तुतः स्वरुपज्ञान प्राप्त हो जाता है तब वर्तनपर भी उसका गहरा प्रभाव पड़ता है। लोगोंका ज्ञान बहुधा उपयोगिताके स्थानमें आडम्बर निमित्त और स्वात्मगुणबुद्धिके विकास के स्थान में स्वकीर्तिरूप क्षुल्लक ऐहिकवृत्तिसे उत्पन्न हुआ हुआ होता है, जो किसी भी प्रकारसे ज्ञान नहीं कहला सकता है । इसलिये इस अधिकारके आठवें श्लोकमें कहते है कि " आगम केवल अभ्यासमात्रसे कोई फल नहीं दे सकते हैं " | विषयप्रतिभास ज्ञान तो जीवको कईबार प्राप्त होता है परन्तु साध्यकी प्राप्ति तो केवल तत्त्वसंवेदन ज्ञानसे ही प्राप्त हो सकती है। शास्त्राभ्यासी प्रमादीको उपदेशयस्यागमाम्भोदरसैन धौतः, प्रमादपङ्कः स कथं शिवेच्छुः ? रसायनैर्यस्य गदाः चता नो, सुदुर्लभं जीवितमस्य नूनम् ॥२॥ " जिस प्राणीका प्रमादरूप किचड़ सिद्धान्तरूप वरसादके जलप्रवाहसे भी नहीं धोया जा सकता वह किस प्रकार मुमुक्षु ( मोचप्राप्तिका अभिलाषी) हो सकता है ? खरेखर, रसायणसे भी जो यदि किसी प्राणीकी व्याधियोंका अन्त न हो सके तो समझना चाहिये कि उसका जीवन रह ही नहीं सकेगा ।" उपजाति. विवेचन-जब शास्त्रश्रवणसे भी प्रमावका नाश न हो सके
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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