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________________ [सप्तम २४२] अध्यात्मकल्पद्रुम दूसरे पुरुषोंके हजारों रुपयोंके नुकशानकी ओर ध्यान भी नहीं देता है । व्यवहारमें ऐसी प्रतिष्ठाकी हानि सहन करना अधमाधम है । इसप्रकार क्रोध, मान, माया अथवा लोभ करनेवाले प्राणीको किश्चित्मात्र भी यश प्राप्त नहीं हो सकता है और जो • मिला हुभा होता है उसका भी अपयशमें परिवर्तन हो जाता है। ऐसा पुरुष यदि संसारको दिखाने निमित्त किसी समय कोई ज्योंहार या जीमनवार करता है तो करते समय और करने पश्चात् मनुष्य उसके प्रति क्या भाव प्रगट करते हैं उनको सुननेसे अथवा देखनेसे उसके अपयशका सच्चा सच्चा पत्ता लग जाता है। ४-माबाप तथा भाई भी ऐसे प्राणीपर प्रेम नही रखते हैं । मावाप प्रेमके सोते (झरा) कहलाते हैं जो कभी भी नहीं सुखते हैं, किन्तु वे तथा भाई भी जब जानते हैं कि यह भाई क्रोधी, अभिमानी, कपटी अथवा लोभी है तो वे भी उससे प्रेम करना छोड़ देते हैं। कषाय करनेवाला पुत्र अथवा भाई एक मात्र अपने हितकी ओर ही देखता है और स्वार्थसंघट्ट समय तो अति अधम व्यवहार करता है । उस समय उसका पिता अथवा भाई उसको किस प्रकार चाह सकता है ? मातापिताका प्रेम त्याग करने योग्य है यह सच बात है किन्तु उस त्यागकी अपेक्षा होती है । संसार व्यवहारकी अपेक्षासे और क्रोधादिका सत्य स्वरूप निरुपण करते समय व्यवहारपर उसका कैसा असर होता है यह बतानेमें माबापका प्रेम या बन्धुवर्गमें प्रीति यह मनुष्यों के उत्तम स्वभावका दिग्दर्शन करानेवाले हैं और इसलिये भादरणीय हैं। कषाय करनेवाले पुरुषकी इस प्रकार घरमें भी प्रीति नहीं होती है । बाहर भी अपयश होता है और कोई उससे मित्रता नहीं रखता है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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