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________________ २०२ वह निरुपम है तथा भविष्यमें वह मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है।" उपजाति. विवेचन- अतद्वति तत्प्रकारकं ज्ञानं भ्रमः' जहाँ सुख न हो वहाँ सुख मानना भ्रम कहलाता है। विषयोंमें जो यह जीव सुख मानता है यह भ्रम है, कारणकि उनमें किञ्चित् मात्र भी सुख नहीं है; अपितु भविष्यमें उसे माने हुए सुखसे बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसप्रकार प्रमाद तथा विषय दोनों प्रकारसे दुःखमें डालनेवाले हैं। वे इस जीवकी बुद्धिको भ्रष्ट कर इसे इन्द्रिय भोगोंमें सुख मनाते हैं । विषय सेवनारको किस प्रकारका सुख होता है उसके लिये महाराज धर्मदासगणिने लिखा है:जह कच्छुल्लो कच्छं, कंडुयमाणो दुहं मुणह सुक्खं । मोहाउरा उ मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिति ।। " जैसे खुजलीसे पीड़ित पुरुष खाज चलनेपर उसके खुजानेमें आनंद मानता है, उसीप्रकार मोहमें आतुर हुए प्राणी कामभोगके दुःखको-विषयोंको सुख कहते हैं ” परन्तु इस सुख. परसे झूठे मोहको कम करके-अभिलाषा छोड़ कर-जब शांतिमें निमग्न होजाते हैं, तब संसारवासना नष्ट होकर उच्च भावना अन्त:करणमें निवास करती है उस समय मनमें जो आनंद होता है वह निरुपम है। दुनियामें दूसरा ऐसा कोई आनन्द नहीं है कि जिसकी तुलना इससे की जावे । उमास्वाति वाचक महाराज श्री प्रशमरति प्रकरणमें कह गये हैं कि: नैवास्ति राजराजस्य, तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १॥ " लोकव्यापारसे रहित साधुको जो आनन्द प्राप्त है वह
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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