SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ है कि शरीर प्राप्तिका क्या कारण हैं और उस हेतुसे किस प्रकार नीवन भलीभांति व्यतीत किया जा सकता है। इस श्लोकका भाव एक और दूसरी प्रकारसे भी समझा जा सकता है । वह यह कि यदि तूं शरीर की रक्षा करना चाहता है तो पुण्य कर कि जिससे परभवमें जो तुझे शरीर मिलेगा वह इससे भी उत्तम मिलेगा । यह कहने का प्रयोजन यह है कि इस शरीरको बचानेमें तो कोई भी समर्थ नहीं है । इन्द्र जैसे भी असमर्थ है अतः पुण्यधन प्राप्त कर । पुण्यके बिना परलोकका भय कदापि दूर नहीं हो सकता है । पात्र के नाश होजानेका भय रखनेके स्थानमें तो पात्र बनानेकी कला शिख लेना अत्युत्तम है, जिससे उस पात्रके नाश होजाने पर उससे भी, सुन्दर दूसरे पात्र के बनाने की शक्ति तैयार रहे । देहाश्रितपनसे दुःख, निरालम्बनपनसे सुख. देहे विमुह्य कुरुषे किमघं न वेत्सि, देहस्थ एव भजसे भवदुःखजालम् । लोहाश्रितो हि सहते घनघातमग्नि__ बर्बाधा न तेऽस्य च नभोवदनाश्रयत्वे॥४॥ " शरीरपर मोह करके तूं पाप करता है, किन्तु तुझे यह खबर नहीं है कि संसारसमुद्र में जो तूं दुःख भोगता है वह शरीरमें रहने ही के कारण भोगता है । अग्नि जब तक लोहेमें रहता है तब तक ही हथोडे( धन )की चोटको सहता है, इस लिये जब तूं आकाशके समान आश्रयरहित हो जायगा तो तुझे अथवा अग्निको कुछ भी कष्ट न होगा।" वसन्ततिलका
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy