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________________ १६९ उस शरीरके लिये हिंसादिक) कर्मोंको करते समय भविष्यका विचार कर । यह शरीररूप धूर्त प्राणीको संसारमें दुःख देता है।" वंशस्थ. विवेचनः-शरीरके पोषण करने निमित्त प्राणीको अभक्ष्य पदार्थ खाने पड़ते है तथा अनेकों उपचार करने पड़ते हैं । पैसे भी इसीके लिये उपार्जित करने पड़ते है । हिंसा, असत्य आदि पापात्मक कार्य भी करने पड़ते हैं । शरीर धीरे धीरे कोमल हो जाता है। इसके लिये साबुन लगाना पड़ता है, पंखे हिलाने पड़ते है और अखाद्य पदार्थ दवाके रूपमें खाने पड़ते हैं; किन्तु इस प्रकारसे पोषण किया हुवा शरीर किञ्चित्मात्र भी बदलेमें उपकार नहीं करता, अपितु बारंबार कष्ट पहुंचाता रहता है और इसके भी उपरान्त कईबार तो रोगका घर बन जाता है। अतः ऐसे कर्म करते समय प्राणीको भविष्यकालका विचार करना चाहिये । शरीरके जरासे सुखके लिये यह प्राणी तो अकथनीय औषधियोंका सेवन करता है और अपनी ही इच्छानुसार कार्य करके परभवमें नीच गतिको प्राप्त होता है और नरकके दुःख भोगता है और ऐसे कार्योंसे पोषित किया हुआ शरीर भी बिना नाश हुए नहीं रहता। हम उसको अपना मान बैठे हैं, परन्तु वास्तवमें यह ऐसा नहीं है जैसी कि हमारी धारणा है। विद्वान् शास्त्रकार कहते हैं कि यह, शरीररूप धूर्त सब प्राणीयोंको ठगता है। कहनेका यह प्रयोजन है कि शरीरका पापात्मक कार्योंसे पोषण नहीं करना चाहिये धार्मिक कार्योंमें यह उपयोगी होता है, अतः उसको उचित २२ .
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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