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________________ आदि पुरुष छिद्र ढूंढ़ कर दुःख देनेकी अभिलाषा करते है, अनेक चिन्तामें माकुल व्याकुल रखकर जो पैसे धर्मकार्य करनेकी तो याद भी नहीं आने देते और बहुधा जो दूसरों के ही उपभोगमें आते हैं ऐसे पैसोंके बड़े संग्रहका हे ! पंडितो ! तुम त्याग करदो।" शार्दूलविक्रीडित विवेचनः-संसार समुद्र है। भारसे लदा हुमा जहाझ जिसप्रकार समुद्र में डूब जाता है उसीप्रकार पापसे भारी हुमा जीव संसारसमुद्र में डूब जाता है । पैसेके कमानेमें, उसके रक्षण करने में और भकार्यमें व्यय करनेमें अनेक प्रारम्भ करने पड़ते हैं, आरम्भसे पाप होता है और पापसे आत्मा भारयुत होता है, अतः पैसा संसार-भ्रमणका ही कारण है। राजालोग पुराने समयमें पैसे बिन लेते थे और ऐसा करनेके लिये द्रव्यवानके छिद्र ढूंढा करते थे । गृहस्थोंको हमेशा इसका भय बना रहता था और इस मयसे पैसे होने पर भी अपने आपको गरीब बताना पड़ता था। आजकल भी पैसेवालोंको चोर, लुच्चे और सोनेरी टोलीवालोंका भय रहता है । पैसोंके विचारसे यह प्राणी इतना अधिक लुब्ध होआता है कि अपने पुत्रधर्म, पितृधर्म, पतिधर्म, भक्तधर्म आदि धर्मों को तद्दन भूलजाता है। इसको पैसोंके विचारमें ही आनंद पाता है । पैसोंको कैसे एकत्र करना ? कैसे बढ़ाना ? कैसे खर्च करना? आदि आदि बाते ही उसके मनपर इतना अधिकार जमा लेती है कि वह अपना सब धर्म छोड़ देता है; उसको धर्मका नाम भी याद नहीं आता है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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