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________________ १०२ भी इस में कम भाग लेते हैं । स्त्रियों को निर्लज्जपन से न रोनेधोने के लिये विशेषरूप से उपदेश किया जाता है और उस समय पर बोलेजाने योग्य वाक्यों के नियमित पाठ कण्ठाग्रह करने का आदेश किया जाता है। आर्य संसार के अधःपतन का यह भी एक सच्चा दिग्दर्शन है। इस समय में केलवणी की बहुत कमी होना प्रगट होता है और धार्मिक दृष्टि से तो यह रिवाज नितान्त निर्मूल, मोह का खेल और नूतन नाटक बताता है। अन्तःकरण से होनेवाले मोहजन्य सच्चे शोक को प्रगट करने से भी जब शास्त्रकार मना करते हैं तो फिर यह धांधलीवाला झूठा व्यवहार तो किस प्रकार कर्तव्यरूप माना जा सकता है ? अपनी शारीरिक स्थिति का विचार न कर इस जंगली रिवाज में प्रवृत होने से कुछ लाभ नहीं है, विवेक नहीं है और विचार नहीं है, अतः सुझं स्त्रियों को लोकनिन्दा का भथ छोड़कर ऐसे व्यवहार से दूर रहना योग्य है । निन्दा करने वाले हजारों वर्ष तक जीवित नहीं रह सकते और जिसकी वे निंदा करते हैं उसकी आत्मिक हानि में वे किञ्चित्मात्र भी भाग नहीं बटा सकते । इसलिये सन्नारियों तथा सत्पुरुषों को हरप्रकार के शोक का त्याग करना और विशेषरूप से कृत्रिम ढोग को तो शिघ्राति शिघ्र छोड़देना ही उचित है ॥ ३२ ॥ मोहत्याग-समता में प्रवेश. . त्रातुं न शक्या भवदुःखतो ये, - त्वया न ये त्वामपि पातुमीशाः । ममत्वमेतेषु दधन्मुंधात्मन्, पदे पदे किं शुचमेषि मूढ़ ! ॥ ३३ ॥
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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