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________________ है । उस पर ध्यान रखकर विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। जब तक ठीक ठीक विचार नहीं किया जाता तब तक यह जीव अपनी शक्ति का व्यर्थ व्यय करता है। आत्म-विचार करना इससे भी अधिक उपयोगी है। वास्तविक बात तो यह है कि यह जीव आकाश के तारों तथा देवताओं के विमानों का विचार करता है, दूर देशमें क्या है यह देखने जाता है तथा अपनी अप्तरंगी जिज्ञासा को अनेक प्रकार से तृप्त करता है; किन्तु स्वयं कौन है ? क्या करता है ? किसके लिये करता है ? उसका क्या अर्थ है ? और उसका क्या परिणाम है ? यह नहीं समझता, समझने का न तो यल ही करता है, न जिज्ञासा ही जागृत करता है, किन्तु ऊपर आकाश में देखते हुए, कुए में पड़नेवाले ज्योतिषी के समान वह भूल करता है। दूसरी चिजों के लिये दोड़धूप करने के स्थान में अनेक आश्चर्ययुत स्वयं कौन है ? विश्वव्यवस्था में अपना कौनसा स्थान है ? कर्म और भवस्थिति के कायदे अपने पर किस प्रकार लागु होते हैं ? उससे छूटकारा पाने का क्या स्थान है ? इस सम्बन्ध में विचार करने की बहुत जरुरत है। यहां आत्म-विचार की ओर जीव का ध्यान आकर्षित किया गया है। हे चेतन ! दूसरे पुरुष तेरा वर्णन करें, तेरी स्तुति करें यह सुनने की तूं अभिलाषा रखता है; परन्तु तेरे में क्या गुण हैं ? महावीरस्वामी जैसा तपस्या गुण, गजसुकुमाल जैसा पमा गुण, श्रीपाल महाराज जैसा दाक्षिण्य, स्कंदक मुनि जैसी समता, विजयसेठ जैसा ब्रह्मचर्य, बाहुबली जैसा मदत्याग, हेमचन्द्राचार्य, हरिभद्रसूरि के यशोविजयजी जैसा श्रुतज्ज्ञान आदि गुण तेरे में
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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