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________________ उदासवृत्तिस्थितचित्तवृत्तयः, सुखं श्रयन्ते यतयः क्षतार्तयः॥७॥ "जब कि जगत के प्राणी पुन्य तथा पाप की विचित्रता के भाधीन हैं, और अनेक प्रकार के काया के व्यापार, मन के व्यापार तथा वचन के व्यापार से अस्वस्थ (अस्थिर) हैं, उस समय में जिन की मध्यस्थवृत्ति में चितवृत्ति लगी हुई है, और जिन की मन की व्याधिये नष्ट हो गई हैं वे यति सच्चे सुख का उपभोग करते हैं।" वशस्थवृत्त. विवेचन- इन्द्रियजनित विषयसुख और समतासुखका स्वरुप बता दिया गया है । उन दोनों के दृष्टान्त बताकर समतासुख की अधिकता सिद्ध की गई है। पुन्य के उदय से यह जीव उत्तम शरीरवाला, सुन्दर, सगास्नेही से परिवृत, धनवान, पुत्रवान् , आयुष्यमान् आदि अनेक प्रकार के रूप धारण करता है। वह जीव पाप के उदय से उस से विपरित रूप धारण कर के कंगाल जैसा दिख पड़ता है, पुन्य से यह जीव सुखी प्रतीत होता है और एक-आध दुःख के एक बारगी उपस्थित हो जाने पर अत्यन्त दुःखी जान पड़ता है । कभी कभी तो बच्चे के समान रुदन करने लगता है और कभी कभी कामरसिक बन कर विषयसेवन करता है, कभी कभी धनहीन हो जाता है और कभी कभी संपूर्ण वैभवशाली हो जाता है । कई कई बार निस्तेज, शक्तिहीन हो जाता है और कई बार महान् १ वशस्थ अथवा वंशस्थविलवृत्त के प्रत्येक चरण में बारह अक्षर होते हैं वदति वंशस्थविलं बतौजौ
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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