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________________ कार के प्रमाण में बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग आदि सद्गुणों के प्राप्त होने पर ही यह जीव अप्रमत्त अवस्था प्राप्त कर शनैः शनैः सब अन्तरंग शत्रुओं का किल्ला ढहाता जाता है। भी वीरप्रभुने भी अभ्यंतर शत्रुओं का नाश करने के लिये इसी मार्ग को ग्रहण किया था। लक्ष्मी के अभिलाषी को भावश्यक है कि सब से प्रथम वह लक्ष्मीवंत की सेवा करे । सेवा से उस पुरुष के ग्रहण किये रास्ते का ज्ञान होता है, उस की ओर श्रद्धा बढती है, अध्यवसाय उत्कृष्ट होता है तब अल्प प्रयास मात्र से ही साध्य की सिद्धि होजाती है । शान्तरस का कामी महापुरुष भी वह रस जिसे प्राप्त होगया है उन आसन्न उपकारी श्री चरम तीर्थंकर की स्तुति करता है । शान्तरसद्वारा उन महात्माओं से अपने अन्तरंग शत्रुओं पर किस प्रकार विजय प्राप्त की इसकी कथायें वीरचरित्रादि अन्य ग्रन्थों में पढ़ें। संगम, चण्डकौशिक, शूलपाणि, गोशालक आदि अतुल्य दुख देनेवाले पर अखण्ड शांति रखनेवाले का अन्तरंग मनोबल कितना वीर्यवान होगा इसको लिखने के स्थान में कल्पना करना ही अधिक युक्त है । कल्पना किया जा सकता है; ऐसे परमात्मा का नामोधारण कर शान्तरस की भावना की गई है। किसी के शब्द मात्र को ग्रहण कर के उस समस्त का पर्ण प्रयोग करना निरुक्त कहलाता है, इस लिये कई शब्दों का अर्थ, व्युत्पत्ति से न बनकर प्रयोग से ही बनता है । वीर शब्द की निरुक्ति करते हुए विद्वान कहते हैं कि:विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः ।।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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