________________
त्रण बालावबोध सहित
-
आगलि पुकार कीजइ । तिम इणि दुषमाकालि जिनरहस्य सुगुरु श्रावक थोडा ॥ ३५॥ . . . . . . . . .. . [मे.] हा इसिइ खेदि । ए मोटउं अकार्य । स्वामी तीर्थकर केवली नहीं । कहि आगलि पुकार कीजइ । किहां ते जिनवचन सूधां। किहां ते सुविहित गुरु । किहां ते सूधा श्रावक, जे गुरुनी परीक्षा न 5 करइ । ए मोटउं अकार्य ॥ ३५॥ ..
[सो.] कुगुरु आश्री वात कहइ छइ । [जि.] अथ लोकप्रवाह कहइ छइ ।
[मे.] हिव कुगुरु भणी वात कहइ । सप्पे दिवइ नासइ लोओ न हु किंपि कोइ अक्खेइ । 10 .. जो चयइ कुगुरुसप्पं हा मूढा भणइ तं दुढे ॥ ३६॥
[सो.] सप्पे० साप दीठइ लोक नासइ । अनइ कोइ काइ न कहई ‘विरूउं कीधउं ।' जो चयइ० जो जाणीनइ कुगुरुरूपिउ साप छांडइ । हा मूढा० अहो मूढ केतलाइ मूर्ख इम कहइ, 'ए. दुष्ट विरूउं कीधउं । आपणा गुरु मूकी अनेरउ गुरु आश्रियउ' ॥ ३६॥5
[जि.] सापि दीठइ लोक नासइ । पुण अनेरउ कोइ लोक नासणहार रहइं किंपि कांई न हु अक्खेइ न कहई । जो चयइ कुगुरुसप्पं० जे पुरुष त्यजइ कुगुरुरूपिउ साप तेहहूई मूढ मूर्ख तं दुटुं अयुक्तुं भणइ जु 'इणिइ आपणउ गुरु मेल्ही अनेरउ गुरु कीधउ, तिणि कारणि ए दुट्ट' इसिउं कहई। इसिउ न जाणइं जु०० इणिइं कुगुरु मेल्ही सुगुरु आश्रउ ॥ ३६॥
१ जि. मे. भणहि. २ जि. दटुं.