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षष्टिशतक प्रकरण
आसन्नसिद्धि कइजिनइ हियइ निरंतर सदैव वसइ । अभागीआ अभव्य दूरभव्य जीव ए एकइ बोल न प्रामइं ॥१॥
[जि.] समस्त धर्ममाहे मूलिगउ सम्यक्त्व धर्म तिणि कारणि सम्यक्त्व जाणावइ । अरिहंत देव ते किसु । राग द्वेष मोह मद मत्सर 5 अहंकार प्रमुख दोष जेह माहे न हुई। अंतरंग वइरी जिणि जीता हण्या ते अरहंत कहीइ । अनइ सुगुरु सुसाधु गुरु जे नीराग निःस्पृह क्षमावंत शान्त दान्त जितिंद्रिय निःकाम तपि करी दुर्बल । सम तृण मणि लोष्टु कांचन । सम शत्रु मित्र । साचउ धर्माक्षरनउ कहणहार । चातुर्गतिक संसार हूंतउ अहर्निश संजम चारित्र अभिग्रह पालइ । ते 1०सुगुरु कहीइ । तथा चोक्तं ।
अक्खरु अक्खड़ कंपि न ईहइ। चउग्गइ भवसंसारह बीहइ । संजम नियमह खणि नवि चूकइ । ए साधम्मिय सुहगुरु वुच्चइ ॥१॥ सुद्धं धम्मं । जीवदयामूल धर्म । तथा चोक्तं ।
___ दुःखं पापात् सुखं धर्मात् सर्वदर्शनसंमतम् । 15 न कर्त्तव्यमतः पापं कर्त्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः ॥२॥ ए त्रिहुं मिली सम्यक्त्व कहीइ। अनइ वली नउकारहूई मोटाइ देखालिवा भणी पंच नवकारो पंचपरमेष्टिनमस्कार चऊद पूर्वनउं सार कहीइ । ए च्यारइ अरहंत सुसाधु गुरु जिनप्रणीत धर्मरूप सम्यक्त्व अनइ नउकार। कयत्थाणं कृतार्थ कृतकृत्य धन्नाणं २०धन्य भाग्यवंत पुरुषने हिय वसइ । निरंतर सदैव ॥१॥
[मे.] अरिहंत देव सुसाधु गुरु अनइ सूधउं वीतरागनउं भाषिउं धर्म पंचपरमेष्टि नवकार ए च्यारि बोल धन्य भाग्यवंत कृतार्थ कीधा अर्थ संसार संबंधीया जेहे तीहनइ हीइ सदाइ वसइ । पणि बहुल संसारी जीवनइ हीइ कांई वसइ नहीं ॥१॥