________________
६८
.
षष्टिशतक प्रकरण
[सो.] गिह० घर कुटुंबना व्यापार जेहे छांड्या छइं ते घणा मुनिलोक महात्माइ. माहि सम्यक्त्व नथी । जेहनइ काजकाम कांई नथी तेहनां मन रोगि कष्टि' आवि मिथ्यात्व करिवा लहबई ।
आलंबण. जे श्रावक गृहस्थ जेहनइ अनेक छोरू बेटा बेटी विवाह 5 वृद्धि व्यवसाय काजकामनां आलंबन छइं तेहनइ मिथ्यात्वनइ विषय लहबहिवा, अहोभ्रात ! किसिउं कहीइ ? ॥ ६४॥
[जि.] गृहस्थव्यापार गृहप्रारंभादिक तिणि करी विमुक्त रहित एवहा बहु प्रचुर मुनिलोक तेहइमाहे सम्यक्त्व नथी । हे
भाय हे भ्रातः ! आलंबननिरत श्रावकहूइं किसु भणां ? जिहां 1०सर्वसंगविनिर्मुक्त महात्माईहूइं सम्यक्त्व न हुई तिहां श्रावकहूई किहां हूतूं ? इति भावः ॥६४॥
[मे.] जेहे घरना व्यापार मूक्या छइं एवहा घणा जे मुनिलोक तेहनइं सम्यक्त्व नथी । ए भ्रात ! रोगि काष्टिं पीड्या हूंता आलंबनना निलय जे श्रावक ते जउ सम्यक्त्व थका लहबहई तिहां सिउं कहिवउं ? 15|| ६४॥
[सो.] उत्सूत्र बोलतउ जीव संसारमाहि पडइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जीव उदिसी कि उपदेस बोलइ । न सयं न परं कोवा जइ जिअ उस्मुत्तभासणं विहि। aता बुड्डसि निभंतं निरत्ययं तवफडाडोवं ॥६५॥
[सो.] न सयं० आपणपइं अथवा अनेरइं कुणहिं कांई न थाइ । कोवा० कोप लगइ अहंकारि चडिउ जउ रे जीव ! उत्सूत्र
१ कष्टि दुःखि. २ भ्रात बांधवइ. ३ कुणहई.