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[ मे. ] इतर जन सामान्य लोक तेहनी प्रसंसा सांभली हृष्ट हर्षित हूंता अहंकारि चड्या उत्सूत्र बोलता भय नाणई । भावइ तिम उत्सूत्र बोलई । ही ही इसइ खेदि । ते पुरुषनइ परलोक जे दुक्ख होsस्य ते वीतरागइ जि जाइ ॥ ५६ ॥
[ जि.] अथ उत्सूत्रभाषणनं फल कहइ ।
उत्त भागाणं बोहीनासो अनंतसंसारो । पाणचए वि धीरा उस्सुत्तं ता' न भाति ॥ ५७ ॥ [ सो.] उत्त० उत्सूत्रना बोलनहार रहई बोधिबीजनउ नाश हुइ । आवते भवे सम्यक्त्व लहइ' नहीं । अनंतर संसार वाधई । अनंता भवनां दुःख भोगवइ । पाणचए वि० तेह भणी प्राणत्याग 10 जीवतव्यनइ संकटि पड जे धीर धर्मवंत ते उत्सूत्र न बोलई ॥ ५७ ॥
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[ जि. ] उत्सूत्रभाषक पुरुषहू बोधि सम्यक्त्व तेहनउ नास हुइ । तिणि कारण बोधि पाषइ अनंतर संसार | ता तिणि कारणि प्राणत्यागई प्राणई जातइ हुंतइ धीर धर्मपर साहसिक उत्सूत्र न भाषई न बोल । वरि प्राणई नीगमई । पुण कूडउं न बोलई । तथा चोक्तं s श्रीउपदेशमालायां—
जीअं काऊण पणं तुरुमिणि दत्तस्स कालियज्जेणं ।
अवि य सरीरं चत्तं न य भणियमहम्मसंजुत्तं ॥ (गा. १०५ ) [.] उत्सूत्रना बोलणहारनई बोधिबीजनउ नाश हुइ । अनंतउ संसार हुइ । ते भणी प्राणनइ त्यागिनं धर्मवंते उत्सूत्र न बोलिवउं 20
॥ ५७ ॥
१ ते २ बोलन्हारु. ३ लहं. ४ पडिइ.