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________________ ॥ रत्नसार ॥ प्रश्नः–तथा ते पंच परमेष्टी शरण करवू ते थी उदय कर्म नूं निवारण थाइ. अरिहंतादिक ना द्रव्य थी शरण करे तो द्रव्य थी जे सर्व पापना उदय श्रावता ते निष्फल थाय, विपाक वेदना पण अल्प थाइ, इत्यादिक गुण घणो नीपजे. सर्व द्रव्य पाप नो नाश करै. तथा (अपा अप्पं मिरउं) इम आत्मा आत्मा नुं सरण करै. सरणागत वज्र पंजर वत् पोता ने स्वरूपे, प्रणमै तिवारे सर्व कर्म नो नाश करै, क्षय करै. इम आत्म शरण अने निमित्त सरण नो स्वरूप जाणवो. तथा (अरिहंत) नो नाम संभारता, समरतां, प्रणमतां, आत्मा ने श्यो गुण नीपजे ? अरि जे राग द्वेष भाव ते मिटैं, वीतराग स्वरूप पामै १. (णमो सिद्धाणं) पद समरतां, संभारतां, प्रणमतां श्यो गुण नीपजे ? सिद्ध स्वरूप प्रात्म अरूपी भाव में पामै २. तथा (आयरियाणं) पद समरतां, संभारतां, प्रणमतां, जीव ने श्यो गुण नीपजे? पंचाचार प्रवर्तीन सुलभ उदय आवै भवांतरै, प्राचार्य पद गणधर पदादिक पामै ३. ( उपाध्याय) पद नु
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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