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________________ ॥ रत्नसार ॥ (२२५) * हिवै मैथुन अणुव्रत चतुर्थ. साधु ने समस्त मैथुन विरमण २० वसा. मन वचन काया ३ एवं १०. स्वदारा परस्त्री करतां एवं पांच. वेश्या तथा अपर स्त्री २॥, कुमारी तथा पर स्त्री करतां . तत गाथा- (मण वय काय मेहुण मविनिया पडरिइ इत्थीओ वेश्या परइथि ओ कुमारी परह स्थी नियमोय ॥१॥) स्वदारा१ परस्त्री २ वेश्या३ दासी ४ कुमारी ५ एवं ते मन वचन कायाई करी एवं १०. ते सुपर्ने तथा जाग्रत पणे एवं २० वसा नो सीयल साधु पालै. तिहां श्रावक ने वसा । न होइ. इति. ५ अथ परिग्रह अणुव्रत पांचमो ५. साधु ने समस्त विरमण वसा२०. अभ्यंतर ने वाह्य करता १०, अतहाने परट्ठा ए बे भेदै ५, स्त्री पीहर श्रात्म निष्ठा- २॥, स्त्री आत्मदत्त एवं वसा ११, तत्र गाथा- ( अभ्यंतरबाहिरपरिगाहोपरसकीयमाचेव इथीपीहरअप्पोइथीनियदत्तनिओयाति ॥१॥धन धान्य
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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