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________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७९) काल माहे मूओ ते माटै अकाले मरण कहिये. इति. २३९. अथ प्रस्ताविक गाथा लिख्यते-जो भणई नार्थ धम्मो न सामाईयं चेव वसाई, सो समण संघ वब्भो कायव्वो समण संघेण ॥ १॥ अट्ठारस पुरसेसुं वीसं. इच्छिसु दंसनपुंसेसु । जिण पडी कुठ तिथयो श्रो पव्वा वे उन कप्पंति ॥२॥ वाल वुढे नपुंसय कि वेजडेय वाहीएतेणें रायवगारिय उमत्तेय अदंसणे ॥ ३ ॥ दास दुथेयमूढेय अणिते जुगएईय अविबन्ध एयभिण्य सेहो नी फेडीयाइयंसी॥ ४ ॥ २४०.एतला ने दीक्षा देवी न कल्पें. आहार भयं परिगाह मेहुणतहकोहमांण मायाए । लोभेओघेलोगे दस सन्नाहुँति सव्वेंसिं ॥ १ ॥ सुह दुह मोह संन्न विति गिच्छा चउदसमेगुणे यव्वा सोके तह धंम सन्ना सोलसएहुंति मणु एसु ॥ २ ॥ रुषाण जलाहारो संकोइणिया भएण संकोई नियतंतु एहीवेपूई रूस्यो वलि परिगाहेणं ॥ ३ ॥ इच्छि परिरंभणेणं कुरुवक
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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