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________________ (१३८) ॥ रत्नसार ॥ तिहां मित्रादि दृष्टी प्रगटैं. न्यायसंपन्न विभव इत्यादिक ३५ पात्रीश गुण प्रगट. तिहां आत्मा जिनोक्त मार्ग चाल्यो तिहां मिथ्यात्व मन्द रूप होय तथा एतला सुधी गुण पामी ने कोई जीव संसार मांहे नदी पाषाणनी परे घंचन घोलना करता अई परावर्त्त पुद्गल संसार माठेरा रहै, तिवारे आर्य देश संज्ञी पंचेद्री पणो गुरू उपदेशै तथा सहज स्वभावे कोई निमित्त पामीने यथा प्रवर्त्त करणे करी आत्मवीर्य थकी अपूर्व करणे मिथ्यात्व राग द्वेष नी जे ग्रंथी तथा उपशम ग्रंथी भेद करतो जे मोहनी कर्म नी सात प्रकृति तेहने उपशमावतो करतो जीव अनि वृत्ति करणे करी एक समय नो अन्तर करणे करी जीव उपसम समाकित पामै. तिवारे जीव मार्ग प्राप्त कहिये. वस्तु धर्म समकित ने पाम्यो. ए अधिकार योगबिंद ग्रंथ में कह्यो छै. १७९. तथा साधुने जे त्रिण्य जोग छै ते त्रण्य रत्न त्रय गुणे प्रणम्या छै ते किम ? ते एक सौ उगणयासीमो प्रश्नः-मनो योग ते सम्यक् दृष्टी दर्शन गुणै
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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