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________________ || रत्नसार ॥ ( ११७) चूलानि षटकशाला २ पाणी हारी नी पटकशाला ३. सारवणोनि षट् कशाला४ . उखलानि षट् षट् कायविराधनो ५. ए पांच स्थान के छः काय विराधना. इति. . १५६. आत्मा नी किंचिदात्मता लिख्यते ते एकसौ गुणसाठमो प्रश्नः प्रथम आत्म स्वरूप वर्ण्यन्ते असंख्यात प्रदेशी १ अनन्त ज्ञानमयी २ अनन्त दर्शनमयी ३ अनन्त चारित्रमयी ४ अनन्त दानमयी, अनन्तवीर्यमयी, अन्नत लाभमयी, अनन्त भोगमयी, अनन्त उपभोगमयी, अरूपी, अखंड, अगुरु लघू मइ, अक्षय, अजर, अमर, अशरीरी, अत्येन्द्री, अनाहरी, अलेशी, अनुपाधी, अरागी, श्रद्वेषी, कोही, अमानी, अमायी, अलोभी, अलेशी, मिथ्यात्व राहत, अविरति रहित, कषाय रहित, योग रहित, जोगी, सिद्धस्वरूप, संसार रहित, स्वआत्मसत्तावंत, परसत्ता रहित, पर भावनो अकर्ता, स्वभाव नो कर्ता, परभावनो भोक्ता, स्वभावनो भोक्ता, ज्ञायक
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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