SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ रत्नसार ॥ जे आवे हर्ष नहीं, पाप ने उदै गये खेद नहीं. एहवी जेहनी दृष्टि ते समदृष्टि कहिये. एटले समदृष्टि ए बे पद नो उपादान निमित्त देखाइयो, ए भाव. ११०. हिवै ४ च्यार निक्षेपा जिनना तेह नी द्रव्य भाव थी भक्ति शी रीते करवी ते एकसौदसमो प्रश्नः-प्रथम पवित्रता पणे एकाग्र चित्ते असातना टाली जिन नो नाम जपिये ते नाम जिन नी भक्ति १. तथा थापना जिननी अष्ट प्रकारी तथा सतर भेदी विधि सुं करै. पछै भाव पूजा तन्मय थई प्रणमै ते थापना जिन नी भक्ति २.तथा द्रव्य जिनते जिनना जीव तेह ने विर्षे तेह ने भावै, जिन ना जीव जाणीने भाव सुं वंदणा करवी ते द्रव्य जिन नी भक्ति ३. तथा भाव जिन ते गडै बैठा, समोसरणे घणाएक जीव ने प्रतिबोध आपता एहवा जे आज श्री सीमंधर स्वामी तेह ने वंदणा, नमस्कार, गुण स्तुति इत्यादि करी ए तन्मय थई भावी जिन ने ए रीते भक्ति करै४.ए निक्षेप४ च्यार नी भक्ति नी रीते समन हृदय थी लिस्युं छै. ए भावं.
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy