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________________ समवसरणमे पुष्प. अर्थात् जिस पवित्र भूमि पर तीर्थंकरों को कैवल्य ज्ञानोत्पन्न होता है वहाँपर देवता समवसरण कि दिव्य रचना करते है। जैसे वायुकुमार के देवता अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा एक योजन प्रमाण भूमि मण्डल से तृण काष्ट कांटे कांकरे कचरा धूल मट्टी वगैरह अशुभ पदार्थों को दूर कर उस भूमि को शुद्ध स्वच्छ और पवित्र बना दिया करते है। वरसंति मेहकुमारा । सुरहिं जलं, रिऊसुरकुसुमपसरं । विरयंति वण मणि कणय । रयण चित्त महि अलं तो ॥३॥ भावार्थ-मेघकुमार के देवता एक योजन परिमित भूमि में अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा स्वच्छ निर्मल शितल और सुगन्धित जल की वृष्टि करते है जिस से बारिक धूल-रंज उपशान्त हो सम्पूर्ण मण्डल में शितलता छा जाती है। और ऋतुदेवता अर्थात् षट् ऋतु के अध्यक्ष देव षट् ऋतु के पैदा हुए पांच वर्ण के पुष्प जो जल से पैदा हुवे उत्पलादि कमल और थल से उत्पन्न हुए जाइ जूई चमेली और गुलाबादि वह भी स्वच्छ सुगन्धित और ढीञ्चण ( जानु ) प्रमाण एक योजन के मण्डल में वृष्टि करते है और देवता उन पुष्पों द्वारा यथास्थान सुन्दर और मनोहर रचना करते है यथा समवायंग सूत्रे "जलथलय भासुर पभूतेणं बिठंठाविय दसद्दवएणणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाण मित्ते पुष्फोवयारे किजई" प्रभु के चौंतीस अतिसय में यह अठारवां अतिशय है।
SR No.022036
Book TitleSamavsaran Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Muni
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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